उपेक्षिता
टपकते रिश्ते में खून(रक्त )होती,
तो ये नासूर न होते ।
क्या मिला वजूद
अपने आप को।
जिंदगी के लय में
बिखरे हुए क्रम से
खुद से उलझते
वक्त के गुजार में,
लुटी हुई बहार है।
कहाँ से ढूँढ़ लाँऊ
अपनी ही निजता को
दर्द में जो शामिल हो चुका ।
सोहबत या मोहब्बत
चढ़ा चुकी चादर
उम्र – मंजर को ।
बस बैठी है ,आग
अपने ही आँगन में।
देता मौका मुझे , जिंदगी
तो ये निःशब्द
नजर न होती आज ।
कहरता मन
कही निकाले वक्त में
कैसी नसीब पाती हैं,
अपनी ही विरासत में ,
नखरों के पलकों में
जलती हुई शमाँ हूँ।
गमगीन मजार में
जिदंगी के बजार में
बैठी है, जिंदगी
दिल के आँगन में
विरानेपन का दौर लिए।
ढ़ेर सारे ,ठौर रंगिनियाँ
वक्त ने ना रक्खा साथ
क्या शिकवा हुई
अपने ही पल को ।
वक्त के गुजार में
कौन पल हुआं बेगाना
हमने नहीं जाना ।
अपने को ढूंढ़,दे देती हूँ। दर्द की वादियाँ
अपने जहाँ के घाटियों में
उजड़ने की मजबूरियाँ
जिंदगी के मंड़प में,
काफूर हो गये ,खास ।
कैसी मर्जी बनी
ठुकराने की तमन्ना हुई ।
सच पूछो, मेरी जिंदगी
हरेक पल में
कहाँ खड़ी हैं, जिंदगी में,
कौंधता, वक्त प्रश्न बनकर
अपनी पकी दर्द , जिंदगी
चीर मवाद निकाल पाती काश।
उपेक्षिता के दर पर
अपना है,हर पल
कैसे भूल जाऊं
धुँधला सफर
अपनी जिंदगी ।
क्या जी पाती हैं
मानवीय गुण अपने
अपने मान- सम्मान
मूल्यों को खोकर ?
रो- रा के भी जी लेते है ।
एक हम होते हैं, हँसकर भी गुजारा न होता।
अपनी जिंदगी
जन्नत या जिल्लत
दोनों से जुदा है।
उठती है, टीस
कैसे बनी उपेक्षिता
अपनों के बीच। _ डॉ. सीमा कुमारी ,बिहार (भागलपुर )
मेरी स्वरचित रचना है 1-12-0 8की ही है
जिसे मैं आज प्रकाशित कर रही हूं ।