उन्हीं के याद में मरकर भी जिंदा रह रहा हूं मैं।
एक ग़ज़ल की कोशिश
1222 1222 1222 1222
बहर–मुफाईलुन
क़ाफिया – अह
रदीफ-रहा हूं मैं
किसी के याद में रहकर, ग़ज़ल इक कह रहा हूं मैं।
उन्हीं के याद में मरकर भी जिंदा रह रहा हूं मैं।
किसी ने आंख की मोती किसी ने अश्क कह डाला।
मेरी जान तुम नहीं रोना नयन से बह रहा हूं मैं।
मुझे पत्थर कहा सबने मुझे छूना नहीं तुम भी।
कि तेरे बस एक दर्शन से ये देखो ढह रहा हूं मैं।
मोहब्बत में इबादत या सियासत जन्म लेती है।
मेरे निकले सनम जुल्मी सदाएं सह रहा हूं मैं।
तू साहिल है सुकूनों से जिसे चाहे उसे भर दे।
उसी सागर में डूबूंगा कि जिसका तह रहा हूं मैं।
©®दीपक झा “रुद्रा”