उन्मुक्त हो, स्वच्छंद हो…
उन्मुक्त हो, स्वच्छंद हो
मेरे ‘प्रेम’ की अनुबंध तू।
हो मेरी अनुरागीनि,
मेरी कविताओं का छंद तू।
प्यार की “पुष्पांजलि” हो
मेरे हार की है ‘द्वंद’ तू।
पतझर की हरियालीयाँ,
मेरे जीवन की हो रंग तू।
सरस्वती, गंगा की धारा हो
बहती यमुना सा स्वतंत्र तू।
कृष्णा की हो बांसुरी,
मेरे आत्मा की सत्संग तू।
जगत आदी की शक्ति हो,
हो मीरा की। मृदंग। तू।
अंत तू ही, तुम उद्गम हो,
इस श्रृष्टि का आनंद तू।
-के के राजीव