*”उन्मुक्त गगन”*
“उन्मुक्त गगन”
उमड़ घुमड़ कर घिर आए काले बदरा छाए,
पवन अविरल उन्मुक्त चले झूमे नाचे गीत गाती।
अठखेलियाँ करता मन बावरा ,कुदरत को देख मचलती।
बादलों में लुकाछिपी चाँद देख चाँदनी घटा छिटकती।
उन्मुक्त गगन में आज खुशी से मै झूमती
व्याकुल मन बेचैन हो,ख्वाहिशों को पूरा करने,
तब हिरणी की तरह उछलती,मदमस्त वादियों में झूमती।
दुनिया भर से रूठ कर उदास मन से ,ढलती सांझ ढले दबे पांव निकलती।
उन्मुक्त गगन में आज खुशी से मैं झूमती
खुली हवा में स्वछंद श्वांस लेते हुए, अकेले ही पहाड़ी वादियों में खोये रहती।
वो हसीन अप्रितम पलों को, बादलों के संग झूमना चाहती।
दोनों बांहे फैलाकर बादलों के काफिला संग खुश हो देखना चाहती।
उन बादलों संग खो कर सुखद अहसास जगाना चाहती।
उन्मुक्त गगन में आज खुशी से मै झूमती
वीरान जंगलों में पेड़ो पत्तों संग, कुछ बोलना चाहती।
बादलों से ढका हुआ , छुपते हुए ,चाँद से कुछ कहना चाहती।
ये सिलसिला थमने ना पाये ,जो नजर ठहर गई बस अब मैं उड़ना चाहती।
तन्हाइयों के जीवन सफर में ,हर पल गुमराह सी उदासीन रहती।
आज उन्मुक्त गगन स्वच्छ हवाओं में खोकर दिल खोल खुलकर हंसना चाहती।
उन्मुक्त गगन में आज खुशी से मैं झूमती
कोई बोले या रोके टोके , मदमस्त फिजाओं में खो जाना चाहती।
श्वासों को भर स्वच्छ हवाओं में, हमेशा उन वादियों में रह खो जाना चाहती।
गम के सागर से उबरने के लिए , ये खूबसूरत नजारों में बहक जाना चाहती।
इन हसीन वादियों फिजाओं में ,झूमते हुए नये साज का नया तराना ढूंढते जाती।
उन्मुक्त गगन में आज खुशी से मैं झूमना चाहती
शशिकला व्यास शिल्पी✍️