‘उनसे’ ज्यादा भुखमरे!
मेरे देश की लोकतंत्रीय चक्की में
तुम घुन से लगे हो,
तुम्हारी बांछे खिल जाती हैं
जब आता है तुम्हारा
वेतन बढ़ोतरी का प्रस्ताव,
तब तुम्हारे चेहरों पर
नही होता तनाव
ना ही कोई मशक्कत करनी पड़ती हैं
तुम्हारे इस खोखले दिमाग को,
तुम्हारी आकाशभेदी हाँ से
गुंजायमान हो जाती है संसद की दीवारें
यहाँ तक की सभी दिशाए
लेकिन जैसे ही एक किसान
अपना गमछा कांधे पर डाले
जैसे ही आता हैं तुम्हारी चौखट पर,
तुम्हारी नानी मर जाती है
सकपका जाते हो तुम
तुम्हारे बड़े दिल को पहुचता हैं
गहरा आघात
जब सुनते हो उनकी
कर्जमाफी की बात
तुम्हारी जुबान को ताले लग जाते हैं
मुंह लटक जाते हैं तुम्हारे
लेकिन भूल जाते हो
की उन्ही का दिया तुम खाते हो
पाते हो वही वेतन जो
अपने खून से वह खेत में सींचता हैं
लेकिन व्यवस्था के आगे
अपना मुँह भीचता हैं
शर्म आनी चाहिए तुम्हें!
पर तुम तो बेशर्म हो
उनसे ज्यादा भुखमरे हो तुम!
– नीरज चौहान