उनमुक्त परिंदे
—–उन्मुक्त परिंदे——–
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कितने दिखते हैं ये खुश परिंदे
खुले आसमां में उन्मुक्त परिंदे
लंबी-लंबी उड़ाने रहें भरते हैं
जहाँ चाह उसी डगर चलते हैं
मनचाही मन से कृति करते हैं
विचरण करते हैं उन्मुक्त परिंदे
दाना -पानी रहें दिल से चुगते
नीड़- कुटुम्ब में हर्षित हैं रहते
झुंड में रह हर संकट रहें हरते
मनमर्जी करते हैं उन्मुक्त परिंदे
प्रकृति रंगों का लुत्फ उठाते
कलरव की मधु ध्वनि करते
आसमान सिर पर उठा लेते
नभ में नभचर,उन्मुक्त परिंदे
गगनचर गगनचुंबी तक उड़ते
व्योमचारी व्योम भ्रमण करते
कतारो में मीलों उड़ाने भरते
सितारों को छूंए उन्मुक्त परिंदे
कोई और,पंछी की चाह नहीं है
यही है दुनिया,जुदा राह नहीं हैं
प्रकृति ईश्वर से कोई रंज नहीं हैं
दुनिया में हैं मस्त उन्मुक्त परिंदे
अहेरी जाल में विहग हैं फंसते
पिंजरे में खग कभी नहीं हँसते
सुखविंद्र दुखी दिल,आहें भरते
आजादी आदी हैं उन्मुक्त परिंदे
कितने दिखते हैं ये खुश परिंदे
खुले आसमान में उन्मुक्त परिंदे
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)