*उधार का चक्कर (हास्य व्यंग्य)*
उधार का चक्कर (हास्य व्यंग्य)
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ऐसा माना जाता है कि अगर किसी को अपनी दुकान जमानी हो तो उधार बॉंटना शुरू कर दो। ग्राहक शहद पर भिनभिनाने वाली मक्खियों की तरह झुंड के झुंड बनाकर दौड़े चले आऍंगे। दुकानदार के पास फुर्सत तक नहीं रहेगी । लोग लाइन से खड़े होंगे । एक-एक करके सबको उधार बॉंटा जाएगा । बिक्री खूब बढ़ जाएगी । माल धड़ाधड़ बिकेगा और अंततः एक दिन वह आएगा, जब बॉंटने के लिए दुकान में माल नहीं होगा लेकिन उधार मॉँगने वालों की लाइन समाप्त नहीं होगी । तब दुकान का शटर बंद करना पड़ता है। कहना पड़ता है कि धंधा बंद हो चुका है ।
ज्यादातर लोग उधार लेकर वापस न लौटाने की मानसिकता रखते हैं । जो उधार बॉंटता है, उसे उधार लेने वाले मूर्ख समझते हैं । सोचते है, चलो कोई तो फॅंसा। हालॉंकि सबके साथ ऐसा नहीं होगा । कई बार लोग उधार के पैसे वापस देने स्वयं आ जाते हैं । कई बार उनको फोन करना पड़ता है । लेकिन उसमें भी एक दिक्कत यह है कि जब दुकानदार उधार लेने वाले को फोन करता है तो व्यक्ति फोन नंबर देखकर ही फोन नहीं उठाता। चुपचाप बैठा रहता है । उधर से टेलीफोन पर आवाज आती है कि आपके टेलीफोन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही है । ऐसे में दुकानदार दूसरी तरकीब अपनाता है । वह किसी अन्य टेलीफोन से कॉल करता है । उधार लेने वाला गलतफहमी का शिकार होकर फोन उठा लेता है और उसके पास तगादा पहुंच जाता है। जिसको देना है, वह देगा । नहीं देना है, तो आप चाहे कितने मोबाइल बदल-बदल कर फोन करते रहें वह नहीं देगा ।
कई लोग उधार का पैसा वसूल करने के लिए पहलवान-टाइप के लोग किराए पर रखते हैं । इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि उधार का पैसा वसूल करना एक टेढ़ी खीर है अर्थात सीधी उॅंगली से घी नहीं निकलता । कई दुकानों पर लिखा मिलता है कि उधार प्रेम की कैंची है । भुक्तभोगियों ने उधार को लेकर बहुत कुछ लिखा है । एक बार जिसे उधार दे दिया जाता है, वह ग्राहक दोबारा दुकान पर ही आना बंद कर देता है । नई दुकान पकड़ता है । उससे उधार लेता है। फिर उसे छोड़ता है । तीसरी दुकान पकड़ता है । बाजार में दुकानों की कमी नहीं है । न उधार देने वालों की, न उधार लेने वालों की ।
बहुत से लोग उधार लेना बुरा समझते हैं । कर्ज लेकर सुख-सुविधाओं के साथ जीवन जिया जाए, इससे बहुत से लोगों का मौलिक मतभेद है । वह जितनी चादर है, उतनी देखकर अपने पॉंव पसारते हैं अर्थात जितना पैसा उनके पास है उतने में ही गुजर-बसर करते हैं । कहीं से कोई चीज उधार नहीं लाते। लेकिन इधर आ कर ई.एम.आई की एक संस्कृति विकसित हो गई है, जो उधार पर ही आधारित है। कर्ज लो और उसे मासिक किस्तों में चुकाते रहो । आजकल जो बड़ी-बड़ी गाड़ियॉं और महंगे फ्लैट बिक रहे हैं, वह सब उधार के अर्थशास्त्र के आकर्षण का ही परिणाम है । जिसे देखो वह उधार लेने के लिए तैयार बैठा है । उधार देने के लिए केवल दुकानदार ही नहीं बल्कि कुछ संस्थाएं भी सक्रिय हैं। बैंक उधार देने के मामले में सबसे आगे रहते हैं। अगर आज ज्यादातर लोगों के पास सिर पर कर्ज रखा हुआ है तो उसका बड़ा श्रेय बैंकों को जाता है । बड़े-बड़े उद्योगपति अपना उद्योग चलाने के लिए बैंकों से उधार लेते हैं। फिर उस रकम को वापस नहीं लौटाते हैं। कई लोग विदेश भाग जाते हैं । फिर वापस नहीं आते । आजकल माहौल ऐसा हो गया है कि कब कौन कितने हजार करोड़ रुपए लेकर विदेश भाग जाए और अपना नाम भगोड़ा में लिखवा दे।
उधार के चक्कर में यह पता ही नहीं चलता कि आदमी बड़ा उद्योगपति अपने पैसों के बल पर है या उधार के कारण है । अनेक बड़े उद्योगपति कर्ज में डूबे रहते हैं या यों कह सकते हैं कि भारी-भरकम कर्ज लेकर लोग बड़े उद्योगपति दिखाई दे रहे हैं। बस यह समझ लीजिए कि गुब्बारे में हवा कर्ज की भरी है । चार्वाक ने बहुत पहले कहा था कि कर्ज लो और घी पियो । अब लोग कर्ज लेते हैं और ऐश-आराम की जिंदगी गुजारते हैं ।
पुराने जमाने में कर्ज को सिर पर एक भारी बोझ समझा जाता था । आजकल कर्ज उतरने का नाम ही नहीं लेता । एक कर्ज की किस्तें पूरी हुईं, तो दूसरे कर्ज की किस्तें शुरू हो जाती हैं । कर्ज लेना और उसको मासिक किस्तों के द्वारा चुकाना एक अनवरत जीवन-क्रम बन गया है । संसार उधारमय है। सब के ऊपर किसी न किसी का उधार है । जिंदगी उधारी चुकाने में बीत जाती है और उधार नहीं चुकता ।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश मोबाइल 99976 15455