बाल उद्यमी बिज्जू
मेरी चचेरी बहन का लड़का बिज्जू(विजय) बचपन में ही हमारे यहाँ रहने आ गया था। दीदी जब मायके आयी तो बड़ों ने कहा इसे यहीं रहने दो। यहाँ और भी बच्चे है , उनके साथ रह कर पढ़ लेगा।
ये उस वक़्त की मान्यता थी कि बंगाल की पढ़ाई थोड़ी कठिन जरूर है पर आसपास के राज्यों से बेहतर है।
दीदी का ससुराल धनबाद जिले के छोटे से कस्बे में था। उनको ये बात जँच गयी क्योंकि हमारे घर का माहौल पढ़ाई वाला था, अमूमन सारे बच्चे पढ़ने में तेज थे, एक दो को छोड़कर।
बड़ों का मार्गदर्शन और पैनी नजर बच्चों की गतिविधियों पर हर समय रहती थी।
वो मुझसे लगभग दो साल बड़ा था और अपने कस्बे में पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था। पढ़ाई में थोड़ा लापरवाह होने के कारण यहाँ उसे कक्षा २ में ही प्रवेश मिला।
रंग गेहुआँ और घुंघराले बाल थे, कद मेरे से छोटा था।
मेरे एक चचेरे मामाजी का लड़का संजय भी यहां पढ़ने के लिए आया हुआ था और एक दूसरी चचेरी बहन की बेटी सरोज भी वहाँ पढ़ती थी।
ये सिलसिला बहुत पहले से ही जारी था, कई और रिश्तेदारों के बच्चे भी इससे पहले यहाँ आकर पढ़ चुके थे।
आप यूँ कह लीजिए कि हमारा घर बच्चों का एक छोटा मोटा होस्टल ही था। किसी भी रिश्तेदार के पुत्र या पुत्री को साक्षर और योग्य बनाने की गारंटी हमारे घर ने दे रखी थी। हर कक्षा के बच्चे मौजूद थे।
करीबी रिश्तेदार अपने बच्चों से ये कहने से भी नहीं चूकते कि अगर वो नहीं सुधरे तो फिर उन्हें हमारे यहाँ पढ़ने के लिए भेज दिया जाएगा।
सारे बड़े भाई बहन शिक्षक बने घूमते रहते थे।
मेरी मझली दीदी अधिकृत शिक्षिका के तौर पर नियुक्त थी। वो हम चारों को नियम से अपने पास बैठाकर पढ़ाया करती थी।
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चचेरे मामाजी का लड़का पढ़ने में ध्यान नहीं देता था ,मुझसे करीब ३-४ साल बड़ा था। छुप छुप कर फिल्में देखने का उसे शौक था। खेल कूद के बाद जब मैदान में थक कर बैठ जाते, तो वो फ़िल्म के डायलॉग सुनाकर हमारे सामान्य ज्ञान में वृद्धि और एक जलन की भावना भी पैदा करता था कि जिंदगी की मौज तो ये लिखाकर लाया है, हमे तो स्कूल और किताबों से सर फोड़ना ही नसीब में मिला है।
उसने जब नए पंछी को घर आया देखा तो उस से मेलजोल बढ़ाना शुरू कर दिया।
एक दो फिल्में भी दिखा दी। हीरे ने हीरे को पहचान लिया था!!
इसके साथ ही घर मे एक नई दोस्ती की मिसाल ने भी जन्म लेना शुरू कर दिया, “जय विजय की जोड़ी”। ये दोनों अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अब अलग ही पकाने लगे।
लंबे समय तक दोनों एक साथ घर से नदारद रहें और ये बात घरवालों का ध्यान आकर्षित कर दे,
इसलिए इनकी चोरी छिपे फ़िल्म देखने की चाह ने एक नायाब तरीके का आविष्कार किया।
पहला, स्कूल से भागकर मैटिनी शो फ़िल्म देखने पहुंचता और इंटरवल के बाद गंजी और पेट सिकोड़ कर हाफ पैंट के कुछ अंदर तक दबाई स्कूल की एक आध कॉपी किताबों को निकाल कर शान से घर पहुंच जाता।
दूसरा फिर स्कूल से छूटते ही भागता हुआ , रास्ते में पहले के हाथों से ,टिकट लेकर और अपनी पुस्तकें थमाकर फ़िल्म का बचा हुआ हिस्सा देख आता।
दो चार दिनों बाद ये रिले रेस विपरीत क्रम में दोहराई जाती ताकि दोनों पूरी फिल्म, धारावाहिक की शक्ल में ही देख लें या फिर शक और कड़ी निगरानी की वजह से ये खतरा न उठाकर एक दूसरे को कहानी का अपना अपना हिस्सा सुनाकर ही संतोष कर लें।
कहानी सुनाने का विकल्प, पिछली पिटाई से अंतराल कम होने की वजह से भी लिया जाता था। शरीर को भी तो अगली मार झेलने में तैयार होने मे थोड़ा वक्त तो लगता ही था।
दोनों, एक दूसरे के कच्चे चिट्ठे के सहभागी थे, मार खा लेते थे , पर मजाल है कि एक दूसरे के राज उगल दें।
दीदी की क्लास मे ,ये पीछे बैठ कर खुसुर पुसुर किया करते थे। मुझसे कट्टर दुश्मनी थी, क्योंकि पढ़ने में उनसे थोड़ा ठीक था।
मेरे पास से गुजरते ही उनकी बात चीत बंद हो जाती थी, उन्हें शक था कि मैं उनके उल्टे सीधे कामों की जासूसी करता हूँ, जो कि गलत था।
बाद में जब ये सच खुला, तो उन्होंने भी कई बार अपने गुट में शामिल करने की कोशिश की, पर मैं दीदी के शिकंजे मे बिल्कुल कसा हुआ था। वहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं था।
बच्चों में आम सोच तो यह होती है कि एक दूसरे की गलती को किसी तरह छुपा जाना, और मैं भी कोई दूध का धुला तो था नहीं, शरारतें करता ही था, मुझे भी चश्मदीद झूठे गवाहों की जरूरत पड़ती ही थी।
संजय हताश होकर , एक दिन पढ़ाई छोड़ कर अपने घर लौट गया।
उसके चले जाने के बाद, हम कुछ करीब आये।
उस छोटी उम्र में, उसने ये बात मन में बैठा रखी थी कि सबसे जरूरी चीज पैसा कमाना ही है, पढ़ाई से भी ज्यादा।
मैं उसकी इस सोच से इत्तेफाक तो नहीं रखता था पर उसके छोटे मोटे व्यावसायिक व पेशेवर मामलों में दखल भी नहीं देता था। वैचारिक मतभेद होने पर भी हमने एक दूसरे पर, न ही कभी कोई बात थोपने की कोशिश की और न ही इससे कोई रंजिश पनपी।
बचपन में रबर के धागे से बंधी एक बिल्कुल छोटी गेंद की आकार की एक चीज़ हुआ करती थी। रबर के धागे के दूसरे छोर को उंगलियों से फंसा कर , उस छोटी सी गेंद को झटका देकर छोड़ा जाता, रबर का धागा खिंच कर दूर जाता और फिर गेंद रफ्तार के साथ मुट्ठी में चली आती।
उसके दिमाग में एक व्यवसाय जन्म ले चुका था। वो फ़ौरन पास की दुकान से ,५० पैसे देकर ऐसी आठ दस गेंदे खरीद लाया। उसने सोच लिया था कि पास के हटिया मोहल्ले में मंगलवार की बड़ी हाट लगेगी तो आस पास के देहाती बच्चों को दुगनी कीमत पर बेच आएगा।
मंगलवार के दिन किसी बात से, स्कूल की छुट्टी थी।
उसने घर की गायों के चारे रखने के कमरे से इन छुपी गेंदों को निकाला और उनको एक पतली डंडी पर लटका कर, घर के पिछले दरवाजे से , मुझको साथ लेकर निकल पड़ा। मैं भी उत्सुकतावश उसके साथ हो लिया। हम दोनों डंडी में लटकी इन गेंदो को लेकर हाट पहुंच गए।
हाट में चीज़े, लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिये, चीज़ के नाम और पैसे बताकर धड़ल्ले से बिक रही थी।
तभी उसको खयाल आया कि उसने अपनी बेचने वाली वस्तु का नाम तो सोचा ही नहीं।
उसने मेरी ओर देखा, मैंने सोचा” रबर के सूते वाली गेंद”
कहने से बात नहीं बनेगी।
एक दिन पहले दीदी ने अंग्रेज़ी में एक वाक्य लिखवाया था, “Servant was holding a tray in his hands”. मैंने सोचा देहात के लोगो को क्या पता कि ट्रे क्या होती है।
ये सोच कर फौरन उसका नामकरण “ट्रे” कर दिया।
बिज्जू, ने फौरन कहना शुरू कर दिया, दस पैसे में ट्रे लो, दस पैसे में ट्रे लो। एक दो ग्राहक आये भी पर दाम सुनकर बिदक गए।
इतने में दूर से अपनी कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की दिखी, इससे पहले उसकी नज़र मुझ पर पड़ती , मैं शर्मिंदगी से बचने के लिए, वहाँ से खिसक गया।
बिज्जू, डटा रहा। थोड़ी देर बाद वो भी निराश होकर घर के पिछले दरवाजे से चुपके चुपके दाखिल होता दिखाई दिया। एक भी ट्रे नहीं बिकी थी!!!
खुले में शौच के लिए जाते वक्त, तालाब के पास उसे कुछ शोहदे किस्म के बड़े बच्चे ताश खेलते हुए दिखाई दिए, उसने उत्सुकतावश उस ओर कदम बढ़ा दिए, उसकी दीर्घ शंका की व्याकुलता अब थोड़ी शांत होने लगी थी,
अपने ही मोहल्ले के रिक्शेवाले के बेटे को देखकर वो एक परिचित मुस्कान देकर वहाँ जाकर खड़ा हो गया। जुए की ज्यादा जानकारी न होने के बावजूद भी उसने अपने उस परिचित को एक रुपिया निकाल कर अपनी तरफ से जुए में हिस्सा लेने को प्रोत्साहित कर दिया।
उसके अंदर का “वारेन बफ़ेट” अब उठकर अँगड़ाई ले रहा था।
रिक्शेवाले का बेटा जो अपने सारे पैसे हार चुका था, ये मौका मिलते देख, जीतने पर मजूरी मिलने की आस में , दुगने उत्साह से पत्ते फेंटने लगा। उसके कुशल हाथों और विशेषज्ञता के साथ अब बिज्जु की किस्मत भी चल रही थी। कुछ की देर में सारे खिलाड़ी अपनी अपनी पूँजी गँवा बैठे। तभी एक हारने वाले को ये बात दिल पर इतनी लगी कि वो जीत के सारे पैसे जो अब समेटे जा रहे थे , एक झप्पट्टा मार कर सारे पैसे मुट्ठी में दबाकर दौड़ पड़ा, बिज्जु और उसके मातहत खिलाड़ी के तो हाथो के तोते ही उड़ गए, फिर जब अचानक होश आया तो वो दोनों उसका पीछा करने लगे। किसी तरह लात घूसों से काबू पाकर आधी अधूरी जीत के पैसे हासिल किए गए, क्योंकि कुछ पैसे भागते हुए ,मार खाने वाला ये अनुमान लगाकर अपने एक और साथी को पहले ही थमा चुका था ,जो तेज दौड़ कर पहले ही रफूचक्कर हो चुका था।
रिक्शेवाले वाले को उसका मेहनताना देने के बाद बिज्जू को कुछ लाभ तो मिला था, पर ये खुशी गँवा चुके उन अधिकांश पैसों के गम के आगे दब चुकी थी।
भविष्य में इस तरह के खतरनाक व्यवसायों से उसने फिर तौबा ही कर ली।
उसने हिम्मत नहीं हारी थी, इस अनुभव से समझदारी बटोरकर ज्यादा खतरा न मोल लेते हुए,
कुछ दिनों बाद ही ,अपने ही प्राथमिक विद्यालय के बाहर , घर से चुराए बेर के चूरन की छोटी छोटी पुड़िया बनाकर, मोहल्ले के एक मजदूर के बच्चे को हिस्सेदारी के साथ , तैनात कर दिया।
इस बार दाम वाज़िब रखे थे। ये दूरदर्शिता भी थी कि पढ़ाई के साथ हिस्सेदार की हरकतों पर नज़र रख पायेगा।
सारा चूरन बिक चुका था!!
घर का चूरन का डब्बा फिर धीरे धीरे सतर्कता के साथ खाली होता गया।
अपनी इस सफलता से खुश होकर, उसने अब एक डलिया भी खरीद डाली और धीरे धीरे भुनी हुई मूंगफली, चने, चॉकलेट्स, मुड़ी वगैरह भी रखनी शुरू कर दी।
काम ठीक चल निकला था।
हिस्सेदार की मेहनत और बिज्जू का दिमाग और इधर उधर से बचाई पूंजी से काम को और व्यवस्थित करने की तैयारियां शुरू हो चुकी थी।
दोनों घर के बाहर एक छोटे से मैदान के पास , टूटी हुई दीवार पर बैठ कर मंत्रणा करते हुए दिख जाते थे।
फिर एक दिन हिस्सेदार ने सुझाव दिया कि सिर्फ एक स्कूल के बाहर बैठने से आशातीत सफलता नहीं मिलने वाली, इसके लिए विक्रय केंद्रों में बढ़ोतरी आवश्यक है, इसलिए वो अब से आस पास के तीन चार स्कूलों के चक्कर भी लगाएगा।
सावधानी और नज़र हटने की ये शुरआत थी, पर पिछले दस बारह दिनों के जन्मे अटूट विश्वास ने इस प्रस्ताव पर मंजूरी दे दी।
हिस्सेदार ने चाल मे फंसता देख, धीरे धीरे मौके का पूरा फायदा उठाया, महीना खत्म होने पर,सिर्फ डलिया ही शेष बची थी ,
इसके अलावा बेईमान हिस्सेदार के मुँह पर कुछ चोट के निशान भी बचे थे!!
अपने टूटे सपनो से आहत, 13 वर्षीय बिज्जू एक दम दार्शनिक होकर बोला, मामा ” पार्टनरशिप” में कभी कोई काम मत करना।
अब वह फिर एक नए व्यवसाय और पूँजी की तलाश मे जुट गया था।
भले ही वह इन चक्करों में ,अपनी शिक्षा का थोड़ा नुकसान कर बैठा, जो उस उम्र में गलत था,पर एक बात तो थी , वो कभी जोखिम उठाने से नहीं चूकता था!!