“उदासी की स्याह रात में”
उदासी की स्याह रात में,
मौन शब्द हैं चुभते,
कितनी रजनीगंधा रख लो,
एकाकी के शोले धधकते।
स्नेहिल शब्दों की लड़ियों में,
अश्रु ढुलक ही जाता है,
भावों के महासमर में,
अर्थ कहीं रह जाता है।
दूर कहीं जब क्षितिज सोता,
तारों का तब मंडल रोता,
कहीँ पुरवा जब हुयी बैरन,
दीप विरह के जल जल बुझता।
नीर नयन के छुपा न लेना,
बहती ये अविरल धारा,
कितने इसमें पाप बहे हैं,
छोड़ कर मन का कारा।
©निधि…