उदघोष
डॉ अरुण कुमार शास्त्री, एक अबोध बालक ?अरुण अतृप्त
आईना हूँ ठोकर से टूट जाऊंगा ।।
बिखरा जो एक बार जुड़ न पाऊँगा।।
मुझसे मेरे बजूद के मानी न पूँछना ।।
हरएक घटना तो मैं आपको सुना न पाऊँगा ।।
देखो सखी अब के सावन में झूलेंगे झूला ।।
मैं पेड़ पर चढूंगा तुम नीचे से रस्सी पकड़ा देना ।।
देकर बलेटा रस्सी को फिर मैं गांठ पक्की लगाऊँगा।।
तुझको लगे ना चोट कोई ये सुनिश्चित कराऊँगा ।।
हालिया हालात से कुंठित मानसिकता हो गई।।
स्वार्थ सिद्धि के चलते मानवता भृष्ट हो गई ।।
अभ्यास नही था मुझको किंचित भी इस बात का।।
ऊहा पोह में पड़ा पड़ा मैं तो पूरा नकारा हो गया ।।