उथल-पुथल!!
भारी उथल-पुथल है,
मेरे ही, अंतर्मन में,
मैं क्या जानूं,
क्या हो रहा है,
किसी और के,
अंतर्मन में,
इतना कुछ ,
हो गया है,
आज कल में,
किन्तु,
मैं, तो ना कह सका,
जो उमड़ रहा था,
मेरे अपने मन में,
अपनी पीड़ा को,
मैंने ही भोगा,
अपने ही तन वदन,
और मन में,
पर इतना तो,
जान गया हूं मैं,
पीड़ा के उस क्रंदन को,
जो,सह लिया है उसने,
करता हूं अनुभव,
पीड़ा के उस बन्धन को,
अब इसी द्वन्ध में,
पड़ा हुआ हूं,
कैसे उसको व्यक्त करुं,
उसकी पीड़ा को बतलाऊं,
या अपना दर्द अभिव्यक्त करुं,
अपना दर्द सहा है जो मैंने,
उसका तो मैं भुक्त भोगी हूं,
पर उनका दर्द जो देखा हमने,
उनके समक्ष तो मैं कहीं भी नहीं हूं,
यही उथल-पुथल है मन में मेरे,
अपने दर्द को कैसे बड़ा कहूं,
देखा ना जा सके जो ,
उसे उन्होंने,
ऐसे सह लिया,
यह तो उनके लिए ही है निर्धारित,
और यही जानकर भोग लिया।
ना शिकवा ना शिकायत,
ना रुसवाई,ना अदावत,
अपना कर्म मानकर,
सहज भाव से स्वीकार किया,
जीने का उनका ,
यह तरीका,
रह कर अभावों में,
उन्होंने सीख लिया,
बस थोड़ी सी है,
इनकी आवश्यकता,
उससे ज्यादा का नहीं,
कभी इंतजाम किया,
दो वक़्त का भोजन मिल जाए,
और परिवार का पेट भर जाए,
तन को ढकने को मिल जाए कपड़ा,
सिर ढकने को हो सके घर अपना,
इससे ज्यादा कब चाहा है,
ना इससे ज्यादा कभी पाया है,
हर हाल में,मस्त रहा,
जो मिल गया उसी में संतुष्ट रहा,
यह तो कभी सोचा ही ना था,
ऐसा भी वक्त है आ रहा,
जिसमें उसका अस्तित्व ही मिट जाएगा,
उसका वह सब कुछ लुट जाएगा,
जिसके लिए जुझ रहा था,
ना वह ही अपना पन दिखलाएगा,
और ना ही वह उनका हो पाएगा,
जिनकी खातिर वह घर से यहां आया था।