उत्सव
उत्सवः(लघुकथा)
शहर की एकमात्र नदी जो सूखने की कग़ार पर थी,अभी भी बेहद मंद गति से बहते हुए अपने अस्तित्व को बचाने की चेष्टा में जुटी थी। उसके सिकुड़े से आँचल तले, बचे खुचे जलीय जीव जंतु दुबके सहमे पड़े थे।
लेकिन आज वह कमज़ोर नदी अचानक ही घबराकर ज़ोर- ज़ोर से रोने लगी थी …! शायद उसने सुन लिया था कि शहर में पिछले कई दिनों से चल रहे उत्सव का आज ही समापन है…!!
ढोल -नगाड़ों की तेज आवाज़ें नदी के तट की ओर अब तेजी से बढ़ रही थीं।
मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार
मुरादाबाद,उ. प्र.