उत्सव
माही हर्ष भरी दृष्टि सारे आगंतुकों पर डाल रही थी। पास खड़ा उत्सव भी आगंतुकों का आभार जताते मुस्कुरा देता। जाते हुए गरीब मेहमानों को भेंट स्वरूप वस्त्र देकर माही पैरों में झुकने लगती तो गरीब मेहमान उसके सर पर हाथ फेरते- “बेटी की जिंदगी में कभी दुख का साया ना पड़े; जुग जुग जियो; तुम्हारी जोड़ी सदा आबाद रखे ईश्वर।” ये दुआएं माही सुनती तो उसके हृदय में उतरती जाती। तन-बदन में एक अजीब सिहरन महसूस करने लगती। हृदय गदगद होने लगता। और कोई-कोई दुआएं देते वक्त आंखें छलका देता तो माही को लगता कि कहीं वह भी ना रो दे और वह बमुश्किल से अपने आप को रोक पाती।
उत्सव का हाल तो कुछ और ही था। जाते बुजुर्ग स्त्री पुरुष के पैरों को जब छूता तो वे उठाकर अपने सीने से लगा कर रो ही देते। उत्सव उनके आंसू समेटते भावुक हो जाता।
उत्सव की मां और माही के माता-पिता यह सब वाक्या देखकर भावविभोर हो रहे थे। बार-बार छलकती आंखों को पोंछने लगते। पूरा का पूरा माहौल भावनात्मक था।
जिस रोज से उत्सव सरकारी मुलाजिम बन गया था तब से उसने अपनी दिनचर्या क्यों बदल दी थी। आज उसकी समझ में आ रहा था। एक दिन तो मां ने बोल ही दिया था- “उत्सव मैं देख रही हूं कि ना समय पर खाना खाना, ना सोना…, जब देखो तो जागते रहना..,। यह सब क्या है? नियमित ऑफिस न जाना। तू कहां जाता, यह भी कभी नहीं बताता..,। यह तेरे चेहरे पर गहरी उदासी अस्त-व्यस्त से तेरे वस्त्र। यह सब क्या आलम है?”
“नहीं मां..,नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।” कप-कपाती सी आवाज में उत्सव ने कहा।
“मैं तेरी मां हूं रे! जब बेटा कुछ बोल नहीं पाता तो भी मां समझ लेती है,,,। बेटे के अंतर्मन की बात; मां नहीं जान पाएगी तो और कौन जानेगा? भला मां से बेटे की मन की बात कैसे छिप सकती,,,। बेटा भी अपने मन की बात मां से न कह पाएगा तो और किस से कहेगा। अब तू छोटा मोटा आदमी तो नहीं रह गया। अफसर है,,, बड़ा अफसर,,,।” मां कह रही थी और उत्सव चुपचाप सुन रहा था। कोई उत्तर ना दे पा रहा था।
उत्सव के मन मस्तिष्क में तो दिन-रात कुछ और ही चल रहा था। जिसे वह भुलाए भी न भूल पा रहा था। उस वर्ष उत्सव ने ही नहीं उसकी बराबरी करने वाली माही ने भी 98% अंक हासिल कर टॉप में जगह बनाकर कॉलेज का नाम प्रदेश स्तर पर रोशन किया था।
और उस रोज विदाई के उपरांत एक दूसरे से मिले थे। उत्सव की इच्छा थी कि माही उससे कुछ बात करें। माही का भी मन हो रहा था कि उत्सव के जाने से पहले उससे कुछ बात करें। पर ऐसा हुआ नहीं। माही अपने टॉपर से बात कर सकती थी। पर उसकी अंतर मन की आवाज ने ऐसा करने से रोक दिया- “माही कहीं ऐसा ना हो कि तेरा प्यार तुम दोनों की जिंदगी ही न बदल दे। वह तेरे प्यार में खो जाए और दिशा भटक जाए। अपनी मंजिल ना पा सके।” उसकी आत्मा ने निर्देश सा दियां और कुछ सोचती ना कह पाई। इसी बीच उसकी सहेली आ टपकी।
“क्यों किसकी प्रतीक्षा कर रही हो,,,।” उसकी सहेली माना ने व्यंग्य के लहजे में कहा- “कहीं टॉपर-टॉपर का आपस में मिलन तो नहीं हो रहा..,।” कैसी बातें करने लगी माना माही ने उत्तर दिया। मैंने सोचा जाते-जाते कुछ खास बातें करने के लिए उत्सव की प्रतीक्षा तो नहीं कर रही। मन तो चाह रहा था पर नहीं कुछ भी नहीं कह पाई असलियत आखिर माही की जुबान पर आ ही गई। तो मुझसे ही बोल दे तेरी बात ईमानदारी से उत्सव तक पहुंचा दूंगी। माना ने कहा तो माही ने उससे बहुत देर तक बातें की। सारी बातें जान लेने के बाद वह माही का दर्द समझ गई और बोली फिर ऐसा क्यों नहीं करती कि तू शाम की ट्रेन देख ले। निश्चय ही उत्सव उसी ट्रेन से जाएगा। तुझसे मिल भी लेगा। हां यह ठीक रहेगा उसके घर का पता भी लिख लूंगी और मिल भी लूंगी। माही का मन प्रफुल्लित हो उठा। ठीक कहा माना और हाँ तू भी आ जाना। मदद करना मेरी। मैं शाम को जल्दी स्टेशन पर पहुंचूंगी। माही ने कहा। चल अब घर चले माना ने कहा और दोनों घर की ओर चल दिए।
माही अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। धन-दौलत से परिपूर्ण खुशहाल जिंदगी जी रहे थे। इस पर भी माही की सफलता पर उन्हें गर्व था। माही भी समझदार होनहार लड़की थी। वह समय भी आ गया; जब उत्सव से मिलने स्टेशन पर पहुंच गई। वह उत्सव से अपने मन की सारी बातें कह दगी। उत्सव भी खुश हो जाएगा। फिर हमें मिलने-जुलने से कोई नहीं रोक पायेगा। हमारा छोटा सा आशियाना होगा। उससे मैं उत्सव और,,, और मन ही मन जिंदगी के तानों-बानों की उधेड़बुन मे माही खो गई।
गाड़ी भी आ चुकी थी। माही झपट कर चल दी। दौड़-दौड़ कर एक-एक डिब्बे को देखती जा रही थी। पर उसे उत्सव दिखाई न दिया। कहां गया होगा, कहां होगा, कौन से डिब्बे में होगा, सोचती माही निरंतर बढ़ती जा रही थी। अब गाड़ी छूटने में कुछ पल ही शेष रह गए थे। पर माही अब भी एक-एक डिब्बे में उत्सव की तलाशी ले रही थी। पर जब उत्सव को बार-बार ढूंढने पर भी किसी डिब्बे में ना मिला तो माही उदास-निरास होने लगी। अब उसका मन और दिमाग घबड़ा उठा। हृदय की धड़कने तेज हो चलीं। सांसें फूलने लगीं थीं। दिल धौंकनी की तरह धड़कने लगा था। आंखें डबडबा उठी थी। अब गाड़ी भी धीरे-धीरे रेंगने लगी थी। ज्यों-ज्यों प्लेटफार्म छूटता जाता त्यों-त्यों गाड़ी की चाल शनैं:शनै: बढ़ती जा रही थी। फिर भी माही का मन भर नहीं रहा था। आस की डोर अब भी बंधी थी और दौड़-दौड़ कर डिब्बों की तरफ टकटकी सी बांधे देखती जाती। इस उपक्रम में जब लोगों से टकरा जाती तो उन्हें लगता कि कहीं कोई पागल लड़की तो नहीं जो अपने आप को मौत के मुंह में झोंक रही। चलती गाड़ी के नीचे आ गई तो,,,। अब गाड़ी प्लेटफार्म भी छौंड़ चुकी थी।
उस रोज से माही के दिमाग पर न जाने कैसा धक्का लगा कि माही वक्त- बेवक्त दिन हो या रात चिल्ला उठती- मेरा उत्सव आएगा। मैं नाबालिक हूं। और जोर का ठहाका मार कर हँसती, रो देती। समय बीतता गया और चार-पांच वर्षो का अरसा गुजर गया। माही के पिताजी ने उस लड़के को इन वर्षों में कहां-कहां तलाश नहीं किया। मगर निराशा ही हाथ लगती रही। अब तो माही को अपने तन-बदन की भी सुध न रहती। खानपान से जैसे उसका कोई वास्ता न रह गया था। एक ही बात रटती। उत्सव, मेरा उत्सव आयेगा। कहकर निढ़ाल शांत पड़ जाती। अचेत सी हो जाती। माता-पिता सिर्फ आंसुओं के सैलाब में डूब कर बेबस रह जाते। कहां-कहां किस डॉक्टर को नहीं दिखाया। पर सभी का एक ही उत्तर था यह उस लड़के उत्सव को जान से ज्यादा चाहती रही होगी। हां यदि उस समय उससे सब कुछ प्रकट कर देती तो शायद यह स्थिति न बनती।
माही अक्सर घर से भागकर सीधे रेलवे स्टेशन पर पहुंचती। उत्सव उत्सव बुदबुदाते आते जाते व्यक्ति पर नजर डालती और उदास हो जाती।
उसका अंग-प्रत्यंग जहाँ-तहां से फटे कपड़ों से झांकता दिखाई दे जाता। तन-बदन की भी सुध न रह गई थी। पीछे से जब किसी व्यक्ति के कन्धे पर अपना हाथ रख देती और पलट कर जब वह व्यक्ति माही की ओर मुड़कर देखता तो माही उदासी के आलम में डूब जाती। मेरा उत्सव बुदबुदाती आगे बढ़ जाती। उत्सव की मां की तबियत कुछ ठीक नहीं थी। इसलिए वह स्वयं डॉक्टर साहब को दिखाने अस्पताल गई थी। मां जी को जब डॉक्टर साहब देख रहे थे तो उन्होंने पूछ लिया मां जी आपके साथ में कोई,,, नहीं डॉक्टर साहब मैं अकेली ही आई हूँ। उत्सव मेरा बेटा कुछ रोज से ऑफ़िस नहीं गया था। इसलिए उससे बोल दिया कि मैं दिखा आऊंगी। “मेरा मतलब था कि एक-दो दिन के लिए आपको भर्ती करना पड़ेगा ताकि आपकी देख परस हो सके।” डॉक्टर ने कहा- “मानती हूं डॉक्टर साहब पर हालात रुकने लायक नहीं मैं रोज दिखाने आ जाया करूंगी माँ जी ने कहा-, ” ठीक है माता जी जैसा आप चाहे; मैं 2 दिन की दवा लिख देता हूं। आप अपने बेटे से मंगवा लीजिएगा।” डॉक्टर साहब ने कहा। “हां डॉक्टर साहब।” कहते हुए उत्सव की मां चल दी। अभी बाहर वह कुछ डगें आगे बढ़ा पाई थी कि उसके पांव ठिठक गये। ‘बेचारी की बुरी हालत हो गई। क्या शरीर था, क्या लोच था बदन पर लेकिन आज सूख कर ठठेरा हो गई। न तन की सुध न खाने-पीने का होश, जब देखो तब उत्सव उत्सव ही रटती रहती है।‘ माना अपनी किसी सहेली से बेंच पर बैठी बैठी बतिया रही थी। “यह मर्द होते ही ऐसे हैं।“ सहेली ने कहा- “औरत कुछ करें तो बदनाम और पुरुष धोखा दे दे तो कुछ नहीं।“ “नहीं, ऐसी भी बात नहीं।“ “फिर फिर क्या बात है।“ “दरअसल उत्सव गरीब परिवार से था और माही बहुत बड़े रईस की इकलौती बेटी थी। माही हृदय की गहराइयों से चाहने तो लगी थी, पर अपना प्यार उस पर जाहिर न होने दिया।“ “ऐसा क्यों?” “ऐसा इसलिए कि जो शिक्षा की उड़ान थी। कहीं माही का प्यार अवरोधक न बन जाए। उसके ही नहीं माही के भी भविष्य की दिशा ही न बदल जाए। उत्सव चाह कर भी न कह सका क्योंकि वह जानता था कि कहा मैं और कहां माही। मेरे प्यार की फजीहत या बदनामी न हो जाए। मेरी गरीबी का कोई उपहास न करें।“ माना बता रही थी। “वाक्या तो दिलचस्प है।“ सहेली ने कहा। “उसने उत्सव को ढूंढने की क्या कोशिश नहीं की। पर थक गई वह। हार गई अपनी जिंदगी से और पागल हो गई। उत्सव की याद में अपनी सुध-बुध ही खो दी।“ माना गंभीर… और माही के दर्द में डूब गई। उत्सव की मां ने जब यह वाक्या सुना तो दंग रह गई। होश उड़ गए उसके। ‘इतनी चाहत ऐसी लगन कि आपने आपको मिटा दिया। एक चलती फिरती लाश बनकर दर-दर की ठोकरें खाती फिरने लगी।‘
उत्सव की मां सोचने लगी। उनके हृदय में तूफान के बवंडर से उठने लगे। गला शुष्क पड़ने लगा। वह अपनी तकलीफ भूल गई और सीधे घर पहुंची। मां जी उत्सव की प्रतीक्षा में तम तमाई बैठी थी। थोड़ी ही देर में उत्सव ने प्रवेश किया। मां का तमतमाया चेहरा, तनी भृकुटी, आंखों से उतरता खून सा देख उत्सव के होश फाख्ता हो गए। “क्या है मां। आप ठीक तो हैं।“ “मैं ठीक हूं या नहीं कोई दुख नहीं पर तू मना उत्सव ! किसी की चलती फिरती लाश पर ! खूब जश्न मना ! तेरे कलेजे को भी ठंडक मिल रही होगी।“ मा तड़प उठी। ‘मां मां मैं समझा नहीं। यह आप क्या कह रहीं।“ “तेरे समझने को बचा ही क्या है। तूने एक मां से बात छुपा कर रखी। एक बार सिर्फ एक बात का पता चल जाता कि वह लड़की माही इतना प्यार करती है कि पागल हो गई, तेरे प्यार में दर-दर की ठोकरें खाती फिर रही है जिसे अपने तन-बदन तक का होश नहीं। उसके लिए तेरी यह मां तेरे पैर पकड़ कर उसके प्यार की भीख मांग लेती।“ “मां..,” उत्सव का गला भर आया। ‘मां को क्या मालूम कि यह तेरा बेटा माही की चाहत में कब का भटक रहा।‘ उत्सव मन ही मन कह रहा था। आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ रहा था। “मां मां आपने कभी सोचा है मां। मैं एक गरीब का बेटा हूं। उससे अपने जज्बात करने की हिम्मत कैसे जुटा पाता मां।“ “प्रेम और चाहत ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा, अमीरी-गरीबी नहीं देखती। उनमें एक-दूसरे के प्रति लगन की छटपटाहट के सिवा कुछ और दिखाई नहीं देता। जा अभी जा। माही जहां कहीं जैसी हालत में मिले, ले आ उसे।“ मां ने तड़प कर कहा तो उत्सव बिना कुछ और सुने तेजी से बाहर भागा।
काफी दूरी तय करने के बाद संयोग से माना मिल गई। “माना” चीखा उत्सव। माना ने ज्यों ही अपने नाम का उद्बबोधन सुना तो वह चौक सी गई। कदम जहां के तहां रुक गए। अब तक उत्सव उसके सामने था। वह जोर-जोर से हाफ रहा था। सांसे तेज तेज चल रही थी। “उत्सव तुम!” “हा हा माना” थूक निगलता उत्सव बोला- “आपने माही को कहीं देखा है। कहीं मिली है। वह… वह कैसी है?” एक ही सांस में कितने सवाल कर डालें। माना उसके चेहरे पर आई विवशता टकटकी लगाए एक क्षण देखती रही। फिर बोली- “माही का क्या करोगे जानकर। बेहतर हैं उसके बारे में कुछ न जानने की कोशिश करना।“ “भगवान के लिए उसके बारे में बताइए। मैं आपके पैर पड़ता हूं।“ उत्सव झुका। “नहीं नहीं ऐसा मत कहिए। गलती आपकी नहीं।” माना बोली- “परिस्थितियों बस आप अपने भाव प्रकट नहीं कर सके और माही चाह कर भी आपसे कुछ न कह सकी। वह आपके भविष्य का रोड़ा अपने प्यार का इजहार करके नहीं बनना चाह रही थी।“ “भगवान के लिए कहिए वह है कहां?” उत्सव घबराहट में पूछ रहा था। “उत्सव, मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि वह पागल हो गई और उस पागलपन में सिर्फ और सिर्फ आपका नाम ले लेकर स्टेशन पर भटक रही।“ “भगवान के लिए मेरी मदद कीजिए, स्टेशन तक चलिए, यह उपकार मैं जिंदगी भर न भूलूंगा।“ उत्सव तड़प-तड़प कर कह रहा था। माना की सहेली इस वाकिये को सुन रही थी। “ठीक है, चलती हूँ। यदि माही मिल भी गई तो इस बात की क्या गारंटी कि वह आपको पहचान ही ले।“ “आप कोशिश तो कीजिए।“ उत्सव बोला तो माना अपनी सहेली सहित स्टेशन की ओर चल पड़े।
स्टेशन बहुत दूर नहीं था इसलिए वे जल्दी ही स्टेशन पर थे। तीनों अलग-अलग आगे-पीछे की ओर माही की तलाश में जुट गए। माना ने देखा कि माही के माता-पिता भी स्टेशन पर आशा-निराशा में भटक रहे थे। दृष्टि दूर-दूर तक पड़ रही थी। पर माही कहीं भी नजर नहीं आ रही थी।
– उत्सव भी हार थक कर इधर-उधर फिरता लौट पड़ा। सब लोग एकत्रित होने लगे। माही के माता-पिता अब भी न जाने किधर भटक रहे थे। अचानक उत्सव की दृष्टि रेल की पटरी के दूसरी ओर ठीक सामने एक झाड़ी के झुरमुट में कोई साया सी दिखाई पड़ी। बिना किसी से कुछ कहे आश बस पटरियों को तेजी से लांघता अपनी परवाह किए बगैर छाया की ओर दौड़ पड़ा। उसे आभास सा हुआ कि वहां है कोई। उसे वह अपनी दृष्टि से ओझल नहीं करना चाह रहा था। उसकी निगाहें छाया पर टिकी थी। उसका पैर रेल की पटरी से टकरा गया। सर तेजी से पत्थर से टकरा गया। खून का फव्वारा फूट पड़ा। क्षणिक आंखों में अंधेरा सा छा गया। पर अपनी चिंता उसे कहा थी। उठ कर तेजी से फिर दौड़ा। वह छाया वहां से चल दी थी। अभी कुछ ही दूरी पार कर पाई थी कि उत्सव ने एक जोर की चीख मारी। माही शायद माही के कानों में उत्सव की आवाज भेदन कर गई थी। माही सुनकर अचानक पलटी। उसकी नजर सीधे उत्सव पर पड़ी। उसके पांव अनायास ठिठक गये। ठहर गई वह। अब उत्सव भी 10-15 मीटर की दूरी पर रुक गया। वह माही को कैसे भूल सकता था। उसकी दृष्टि माही पर ठहर गई। माही मेरी जिंदगी की नाव की खिवैया। फिर चिल्लाता उत्सव। माही माझी मेरी माही। मेरी भूल की इतनी बड़ी सजा मत दो। मैं हूँ तुम्हारा उत्सव। कैसे जी पाएगा? माही भी उत्सव को अपलक दृष्टि गड़ाए देखे जा रही थी। जैसे माही पर पड़ी ढूंढ छँट रही थी और उजाले में आ रही थी। माही के पिताजी उत्सव की ओर झपट कर बढ़े और पैरों में गिर गए। “उत्सव” चिल्लाती दौड़ती माही उत्सव की ओर बढ़ी। अब तक उत्सव ने माही के पिताजी को उठाकर गले से लगा लिया। “उत्सव” माही पुन: चीखी। उत्सव के संयम का बांध टूट गया और दौड़कर माही को अपनी बाहों में कस लिया। यह दृश्य जो देख रहे थे वे अपने आप को नहीं रोक पा रहे थे। उनकी आंखों से भी आंसू टपक पड़े थे। माही बेटा भर्राई आवाज में माही के पिताजी कहने लगे- “बेटा तू एक बार तो कह कर देख लेती। ये तेरा बाप तेरे लिए वही करता जो तेरी आत्मा चाहती। जिसे तूने ह्रदय की गहराइयों से चाहा। उसके लिए यह तेरा बाप क्या नहीं करता। माही ने सुना तो वह भी अपने पिता से लिपट गई। सुबक-सुबक कर रोते देख कर लोग भाव-विभल नम आंखों से इस अनूठे मिलन के ‘उत्सव’ को देखने लगे। किसी किसी महिला के गले माही लिपट जाती तो किसी पुरुष के पैर छूकर उत्सव आशीर्वाद लेता। माही और उत्सव की जिंदगी का यह अनूठा और यादगार ‘उत्सव’ था।
– डी.आर.रजक