उत्सव
शीर्षक:–उत्सव
“साथी रे गम नहीं करना ,जो भी हो आहें न भरना ।
ये जीवन है इकतारा,इसका हर सुर प्यारा..।”
“कभी चुप भी रहा करो।जब देखो तब गुनगुन,हँसना ,खिलखिलाना..।”पायल को गुनगुनाते,रसोई में काम करते देख पराग बौखला कर झल्ला पड़ा।
“क्यूँ,चुप रहने से कौन सा गढ़ा धन मिल जायेगा?या न गुनगुनाने से मन की शांति।”पायल ने मुस्कुरा कर कहा और फिर गुनगुनाने लगी ..”तेरे मेरे सपने,सब एक रंग हैं…।”
“जाहिल औरत ,कोई असर ही न होता इस पे।”पराग पैर पटकता कमरे में चला गया।
पराग सदैव चिढ़चिढ़ा, मौन रहता।जितनी देर घर में रहता ,अजीब सी खामोशी पसरी रहती।बस उस खामोशी को कोई तोडता था तो वह पायल का गुनगुनाना।
न कहीं जाना,न किसी का आना। बहुत जरुरी हो तो पराग कभी साथ न जाता ।वह अकेली चली जाती या बेटे पल्लव को ले जाती। पर कब तक ?लोगों ,रिश्तेदारों के सामने बहाने बना बना के थक चुकी थी।
उसे याद आया पिछले साल मौसी के घर उनके पोते के मुंडन पर गयी तो पूरे रास्ते पराग उखड़े से रहे।वहाँ भी किसी से ढंग से बात न की। पायल खिसियाई हँसी हँस रही थी।
छः माह पहले बड़ी बहन की बेटी की शादी थी ।जबरन लेकर गयी ।तो मुँह फुलाये अलग थलग बैठे रहे। भुनभुनाते रहे “न जाने लोगों के पास इतना फालतू समय कैसे निकल आता है ,चार दिन पहले से ही धंधापानी छोड़ के बैठे हैं। बेमतलव के ठहाके।मजाक मस्ती..। जैसे छोटे बच्चे हों या कालेज की पिकनिक पर आये हों..।”पायल को गुस्सा आ गया..”किसी की हँसी से जलते क्यों हो? हाँ ,आये थे वो लोग चार दिन पहले और फुल इंज्वाय कर रहे थे।तुम्हारी तरह अलग थलग तो नहीं बैठे थे न काम का बोझ लिए थे जबरन।”
“तुम्हारा क्या मतलव है घर द्वार ,धंधापानी सब छोड़ के बैठ जाऊँ?जानती भी हो पैसा कमाने में कितना दिमाग लगाना पड़ता है ,मेहनत लगती है।पर चिंता ही कहाँ किसी को…।”
“तो भुनभुनाने,अलग बैठने से पैसा आ जाएगा..?”पायल का गुस्सा बढ़ने लगा था।
“तुमने गरीबी नहीं देखी।मैंने देखी है ।पिताजी और भाई के अकस्मात निधन के बाद माँ की बेबसी देखी है ।कितनी मुश्किल से इंटर करवा पाई थी वो।और फिर मुझे छोड़ कर वो भी अंतिम यात्रा पर निकल ली। चाचा ने कैसे रखा..वो तुम नहीं जानती।”पराग बोला।
“ठीक है ,आपने अपना बचपन दुख में बिताया।वो अतीत था आपका।
वर्तमान में तो कोई तंगी नहीं है न?अच्छा घर है ।योग्य संतान है ।सभी जरुरत के साधन है। फिर क्या रिश्तेदारों से अलग रहने से क्या दौलत बढ़ जाएगी?कल को हम कुछ करेंगेतो कौन आयेगा हमारे यहाँ,जब आप नहीं जायेंगे तो ..?”
“तो तुम्हें भेज तो देता हूँ औरक्या करूँ .।”पायल के तर्कों से पराग की खीझ बढ़ती जा रही थी।पल्लव भी सहमा सा खड़ा था।
उसदिन बहस इतनी बढ़ गयी कि दो दिन तक मौन रहाःफिर पायल में बदलाव आने लगा।पराग के कारण चुप और खोई खोई सी पायल अब काम करते गुनगुनाने लगी थी या फिर मोबाइल पर गाने तेज आवाज में सुनते हुये काम करती रहती। पल्लव भी उसके साथ हँसता रहता ।वह पल्लव की पढ़ाई पर भी समुचित ध्यान देने लगी थी। बस फर्क था तो बस यही कि जहाँ पायल ,पराग की उपस्थिति में भी मुस्कुराती रहती ,गुनगुनाती रहती थी ,वहीं पल्लव खामोश हो जाता था।
आज पराग के ताने का जबाव पायल से सुन पल्लव कुछ सोचने लगा।
पायल ने उसे चाय का कप पकड़ाया और पराग को भी चाय दे आई।
पल्लव अपना कप और किताब उठा पराग के पास आया “पापा,क्या आप मुझे इसका अर्थ समझा देंगे?”पल्लव ने धीमे से पूछा।
पराग चौंक गया ।”तेरी मम्मी कहाँ.हैं?तू तो रोज उससे पढ़ता है न?”
“हाँ, पर अब आपसे पढ़ा करूँगा। कम से कम इस बहाने आप से बात तो होगी।”पल्लव गँभीरता से बोला। आठवीं क्लास में पढ़ने वाला पल्लव ऐसी बात भी कर सकता है !!पराग असमंजस में था।
“ला, क्या समझना है ।”पल्लव को गौर से देखते हुये पराग ने पूछा
“इस कविता का अर्थ ……
जीने की राह बहुत हैं .।
उजाले की किरण एक।
हँसते जाना उमर भर
हर गम से करे दूर ।
रे पथिक !
जग इक सपना
दो दिन का मेहमान।
पिता बन ईश्वर
संतान को दे छाँव
बन मजबूत सँबल
……।”
पूरी कविता पढ़ते पढ़ते पराग जैसे नींद से जागा।
“मेरे बच्चे ,मैं क्या समझाऊँगा तुझे,तूने ही समझा दिया मुझे।”वह धीरे से बुदबुदाया
“क्या हुआ पापा”
“कुछ नहीं,कुछ भी तो नहीं।”पराग अपनी नम आँखें चुराता बोला।
“जा ,अपनी मम्मी को बोल ,दशहरे की खरीददारी करने चलते हैं और शाम को खाना भी बाहर खा कर आयेंगे..।”
“पर पापा…..वह तो मम्मी आज दोपहर को ही ले आईं थी।और अभी शाम का भोजन बनाने की तैयारी ही कर रहीं हैं।”
पराग को याद आया कि वह तो बस पैसे कमाने की मशीन बन चुका था ।बीबी की जरुरतें,बेटे के शौक ,उसका बचपन तो वह जी ही न पाया। सब कुछ पायल ही सँभालती रही है ।
“पल्लव ,बेटे जाकर बोलो,कि खाना न बनाये हम आज बाहर खायेंगे ।और जल्दी से तैयार हो जाओ तुम दोनों।”कुछ सोचते हुये बोला पराग ।पल्लव आश्चर्य से देखता रसोई की तरफ बढ़ गया।
पराग ने चारों तरफ नज़र घुमाई,आज घर अपनत्व की गर्माहट से भरा लगा।वह अलमारी से कपड़े निकालने.लगा कि कवर्ड के ऊपरी खाने से एक फाइल नीचे गिरी। उसने झुक कर बिखरे कागजों को उठाया । यह फाइल पायल ने मेंटेन की हुई थी।इसमें आने वाले निमंत्रण पत्र सहेजे हुये थे। सब कुछ तो वही देखती थी ।कहाँ जाना है ,क्या देना है आदि।
तभी उसकी नज़र एक निमंत्रण पत्र पर पड़ी। बड़े साले साहब का निमंत्रण पत्र था बेटी की शादी का। तारीख देखी …।दशहरे पर गोद भराई व नजराने की रस्म थी ।ठीक दीवाली के दो दिन बाद विवाह। ..।
“पायल ने तो कुछ भी न बताया?दशहरा तो परसों ही है।और देख कर लग नहीं रहा उसने जाने की कोई तैयारी भी की है ..।”पहली बार पराग को स्वयं पर गुस्सा आया। सारे कागज सँभाल कर रख उसने कपड़े बदले।
“पायल,पल्लव !कहाँ हो दोनों…?तैयार हुये ?”
“जी हाँ ,हो गये तैयार ।पर आज हुआ क्या आपको?शाम से दुकान ही नहीं गये।पल्लव ने बोला कि खाना बनाने को मना किया आपने।” अपने पल्लू को काँधे पर टिका पिन लगाती बोली पायल
“दुकान पर नहीं जाना था कुछ जरुरी काम थे।अब चलो ..।”बाजार में प्याजी कलर की सुंदर सी धानी बॉर्डर वाली साड़ी के साथ मैंचिंग चूड़िया आदि खरीदते वक्त पायल आश्चर्य में थी कि आज हुआ क्या ?पर बोली कुछ नहीं।पल्लव को भी बढ़िया ड्रेस दिलवाई और स्वयं के लिए भी शॉपिंग कर पराग वैष्णव रेस्टोरेंट्स की और बढ़ा तो पायल ने टोक ही दिया ,”बहुत महँगा खाना मिलता है यहाँ।घर चलिये ,मैं दस मिनिट में बना दूँगी।”आज पहली बार पराग को खर्च करते देख हैरान थी।
“कमा किसलिए रहा हूँ?चिंता मत करो।”पराग के चेहरे पर मुस्कान देख पायल हैरान थी।
दूसरे दिन सब काम जल्दी निबटा कर पराग बोला ,”चलो ,एक घंटे में तैयार हो जाओ।”
“अब कहाँ जाना है ?कल बाजार होकर तो आये ..।”पायल पगलाये जा रही थी।
“फंक्शन है न घर में।घर वाले क्या लास्ट मोमेंट पर पहुँचते अच्छे लगेंगे..।”
“मतलव..किसके यहाँ,कौन सा फंक्शन।?”पायल चकित थी ।उसे अनुमान भी न था कि पराग के मन में क्या चल रहा था। भाई को सीधे शादी पर आने की बात बोल ही चुकी थी।
“पायल,मुझे माफ कर दो।अपनी धुन में सबसे कट गया था ।तुम थी जो घर परिवार और रिश्ते सँभाले रहीं। तुम्हारी भतीजी का फंक्शन है न !मैं जाना चाहता हूँ खुले दिल दिमाग से।”पराग की आवाज भर्रा गयी तो पायल की आँखों में भी आँसू छलक आये।
जल्दी तैयारी कर सब लोग निकल पड़े।
सारा फंक्शन अच्छे से निबट गया। पराग ने खुल कर इंज्वाय किया ,ठहाके भी लगाये ।सब के बीच पराग को अपनत्व से बैठे बोलते देख पायल खुश थी जैसे विगत दिनों के सब उत्सव आज ही मना रही हो। दशहरे की फुलझड़ियों, पटाखों के बीच पराग का बचपन लौट आया था।और पायल के लिए इससे बड़ा उत्सव कोई और न था। ढोलक की थाप पर वह झूम के नाच उठी ..
“मेरा पिया घर आया ,ओ राम जी”
मनोरमा जैन पाखी
स्वरचित ,मौलिक