उतार-चढ़ाव की मित्रता
हम भी अपने मित्रों के
करीब रहकर
एक आशीयाना
बनाना चाहते हैं !
हम भी एक चाहत
के घरौदों को
मिल के सजाना
चाहते हैं !!
सोचकर हम भी
निकले थे
एक अनजान सफ़र में !
कोई हमराज
हमको मिल गया
मंज़िल की डगर पे !!
हमारे हाथों को थामकर
कुछ देर तो
यूं ही वो चलते रहे !
पर तूफान की
गर्दिशों में हम
दोनों बिछड़ते चले गए !!
अब बातें सब हमारी
उनको भी
बुरी लगने लगीं !
हम दूर होते गए
और हमारी
दूरियां बढ़ती गयीं !!
एहसास फिर दोनों
को हुआ
मंजिल नहीं आसान है !
सूर्य की ही रौशनी से
होता सदा विहान है !!
साथ चलकर साथ मिलकर
हम जहां को
जीत लेंगे !
हर ख़ुशी हर ग़म को
हम सभी बांट लेंगे !!
डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”
दुमका