उतरी जमीं पर चाँदनी….
उतरी जमीं पर चाँदनी –
नयनों में नेह भरे, उतरी जमीं पर चाँदनी
पलकों पे ख्वाब धरे, पसरी है उन्मादिनी !
तिमिर के आगोश में, मुँह छुपाए थी निशा
पायी ज्योत्सना धवल, हुई धरा भी पावनी !
शुक्लाभिसारिका सी, पिया मिलन को चली
दिपे श्वेत परिधान में, कैसी मधुर लुभावनी !
ताजे कदमों के निशां, कर रहे हैं ये बयां
रेत पर थिरकी थकी, बाला षोडशी नाजनीं !
मासूम कैसे दिख रहे, मीन से चंचल नयन
अंग कोमल कमनीय, देह कंचन कामिनी !
शहरी दरिंदों से बच, दौड़ी चली आई यहाँ
कुदरत के आँचल में, लेती सुूकूं सुहासिनी !
माँ के स्पर्श-सी सुखद, प्रकृति की गोद ये
बिछौना सिकता बनी, लहरें बनी हैं ओढ़नी !
आश्रय ले उपधान का, सोई है बेफिक्र मस्त
झिलमिलाते अंग- वस्त्र, जैसे हो सौदामिनी !
रजत पात्र ले चाँद, भर- भर सुधा ढरकाए
झूम रही ओस न्हायी, रात नशीली कासनी !
– डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“मृगतृषा” से