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14 Jun 2021 · 1 min read

उतरी जमीं पर चाँदनी….

उतरी जमीं पर चाँदनी –

नयनों में नेह भरे, उतरी जमीं पर चाँदनी
पलकों पे ख्वाब धरे, पसरी है उन्मादिनी !

तिमिर के आगोश में, मुँह छुपाए थी निशा
पायी ज्योत्सना धवल, हुई धरा भी पावनी !

शुक्लाभिसारिका सी, पिया मिलन को चली
दिपे श्वेत परिधान में, कैसी मधुर लुभावनी !

ताजे कदमों के निशां, कर रहे हैं ये बयां
रेत पर थिरकी थकी, बाला षोडशी नाजनीं !

मासूम कैसे दिख रहे, मीन से चंचल नयन
अंग कोमल कमनीय, देह कंचन कामिनी !

शहरी दरिंदों से बच, दौड़ी चली आई यहाँ
कुदरत के आँचल में, लेती सुूकूं सुहासिनी !

माँ के स्पर्श-सी सुखद, प्रकृति की गोद ये
बिछौना सिकता बनी, लहरें बनी हैं ओढ़नी !

आश्रय ले उपधान का, सोई है बेफिक्र मस्त
झिलमिलाते अंग- वस्त्र, जैसे हो सौदामिनी !

रजत पात्र ले चाँद, भर- भर सुधा ढरकाए
झूम रही ओस न्हायी, रात नशीली कासनी !

– डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“मृगतृषा” से

2 Likes · 2 Comments · 488 Views
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