उतरते जेठ की तपन / (गर्मी का नवगीत)
जाते-जाते
और ज्यादा
तप रहा है जेठ अब ।
चिलचिलाती
धूप,लिखती
ताप की कविता,कहानी ।
तिलमिलाती
आँख लेकर
आई है गर्मी रिसानी ।
साँस लेते
भाप निकले,
सिकुड़ता है पेट अब ।
आदमी तो
आदमी है
सह रहा है,सह भी लेगा ।
सहते-सहते
बात अपनी
कह रहा है,कह भी लेगा ।
मिल रही है
आदमी को
हेठियों पर हेठ अब ।
चरमराते
चर-चरेरू,
चिटचिटाते पेड़, भूखे ।
चिपचिपाता
है पसीना
और प्यासे होंठ सूखे ।
दे रहा ज्यों
पीठ-पीछे
वक्त,गाली ठेठ अब ।
जाते-जाते
और ज्यादा
तप रहा है जेठ अब ।
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— ईश्वर दयाल गोस्वामी
168,छिरारी (रहली)
जिला-सागर, मध्यप्रदेश ।