उजाला और धूप!
उजाला बनाया जा सकता है धूप नहीं,
यह बात व्यंग्यकार समत सरल ने कही,
और बहुत ही तर्कसंगत एवं सटीक बात कही!
इसके कहने के निहितार्थ क्या हैं,
मनुष्य स्वयं को ईश्वर होने का भ्रम ना पाल पाए!
जैसा कि अक्सर मनुष्य समझने भी लगा है?
हर उपलब्धियों को अपनी बता रहा है,
यह सब मैंने किया है,
या, कि
मेरा ही कराया हुआ है!
यानी कि सब कुछ मेरा ही करा धरा है?
हम सब की यह फितरत रही है,
जो अच्छा हुआ वो मेरा किया हुआ है,
जो अनुचित घटा है,
वह ईश्वर की मर्जी से हुआ है,
जो बन सका है,
वह मैंने किया है,
जो नहीं हो रहा है,
वह ऊपर वाले ने नहीं होने दिया है,
और यही अच्छा है,
जो नहीं हुआ है,
इसी में सबका भला है,
यह सब ईश्वर की रजा है?
पर बात तो तब है
जब हम ईश्वर जैसा ही कर सकें,
किसी मरणासन्न को प्राण प्रदान कर सकें,
जीवों के मन से मृत्यु का भय दूर कर सकें,
हर प्राणी मृत्यु से भागना चाहता है,
हम उसे अभय दान दे सकें?
किन्तु यह हमसे ना हो सकेगा,
लेकिन जो हो सकता है उसे ही कर लें,
ईश्वर की बनाई हुई व्यवस्था को कायम रख लें,
प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करें,
दोहन नहीं,
हर प्राणी को निर्विघ्न जीवन जीने दें,
अपने हितों को सर्वोपरि ना समझें,
किसी की अहमियत को कम कर ना आंके,
ना ही अकारण किसी की जिंदगी में झांकें,
क्या हम कर पाएं हैं ऐसा,
या कर पाएंगे?
माना कि हर कोई राम, कृष्ण, नहीं हो सकता,
पता है कि हर व्यक्ति बुद्ध-महाबीर भी नहीं बन सकता,
किन्तु उसमें जन्मजात जितना भी इंसान रहा है,
उसे वह बचाए तो रख सकता है,
हम ना बना सकें धूप को ना सही,
हम उजाले को धूप की भांति,
सबमें समान रुप से आदान-प्रदान तो कर सकते हैं!!