ईश्वर की खोज
‘मेरा सुख सौंदर्य में है। क्योंकि मेरी क्षुधा सौंदर्यशालिनी है।‘
मैंने बार-बार वाक्य के इस अतुलनीय अंश को स्वयं को सुनाया और विस्मृत न किए जाने की चेतावनी दी। इतना ही नहीं,हर बार संतुष्ट से संतुष्टतर होता रहा। फिर संतुष्टतम होने का उपक्रम करता रहा।
सौंदर्य बिखरने लगा था क्योंकि एक तय अवधि की हर सृष्टि को, बिखरना होता है। अवधि पूर्णता को प्राप्त हो रही थी।
क्षुधा से सारे अहसास,स्वाद और गंध के तृप्ति व तुष्टि की अनुभूतियाँ तिरोहित हो रही थी।
मेरे मन के संसार में ज्वालामुखी सा विस्फोट हुआ था। ‘मेरा सुख सौंदर्य में नहीं है।क्योंकि क्षुधा सिर्फ देह की एक अवस्था है। सौंदर्यशाली सुख अपेक्षाओं में नहीं हो सकता। अनंत है अपेक्षाएँ और अपूर्ण।‘
और कि सृष्टि के सारे आयामों को देख-समझ कर जो विकसित हुआ व्यक्तित्व में वह पूर्णता की लालसा है।
क्षुधा हो तो संघर्ष है। संघर्ष हो तो तर्क है। तर्क को युद्ध और हत्या दोनों मान्य है।
सौंदर्य पूर्णता है। अहं अपूर्णता का द्योतक है। पूर्ण सिर्फ ईश्वर है। ईश्वर सर्वदा संघर्षरत है या तो जीवन के लिए या मृत्यु के लिए। मुझे मरकर या जीकर ईश्वर का सान्निध्य मिलेगा ऐसा सोचना ही ईश्वर को खोजना है। जीने और मरने के लिए देह चाहिए। देह स्थिर रखने के लिए अन्वेषण और आविष्कार होना है। अन्वेषण और आविष्कार विकास के रास्ते हैं। विकास जब परिपक्व होगा तो ईश्वर की खोज पूर्णता को प्राप्त होग। खोजनेवाला ईश्वरीय पद पर आसीन होगा। दरअसल ईश्वर की खोज और कुछ नहीं एक सम्पूर्ण आदमी की खोज है।
मेरा शरीर रोमांचित था और आत्मा तृप्त।
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