ईश्वर की अनुपम सौगात है माँ
ईश्वर की अनुपम सौगात है माँ,
सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है माँ |
चाहो तो दिल चीर कर दिखा दूँ,
हर स्पंदन में संव्याप्त है माँ |
आँख है कान है अधर है माँ,
दृष्टि है शब्द है मुखर है माँ |
इस अनजान जीवन डगर में,
सदा सर्वदा हमसफ़र है माँ |
समासों में द्वंद्व समास है माँ,
अक्षरों में अकार है माँ |
वेदनाएँ जहाँ शरण लेती,
भावनाओं का ऐसा घर-द्वार है माँ |
हृदय में प्राण का संचार है माँ,
हर दुःख-दर्द का उपचार है माँ |
छोटा-बड़ा उम्र चाहे कितनी भी हो,
व्यथा-वेदनाओं की कातर पुकार माँ |
सुबह उठने से रात सोने तक,
निष्काम कर्मयोग का सफर है माँ |
बिखरा संसार हरपल जोड़ती जो,
जुड़कर चलने की पक्षधर है माँ |
बनके, मिटके भी जो नहीं मिटती,
संभावनाओं की वो लहर है माँ |
गीता के योग जहाँ मुखर होते,
उस ज्ञान का सर्वोच्च शिखर है माँ |
वेद ऋचाएँ जहाँ विश्राम लेती,
उन ऋचाओं का मूल स्वर है माँ |
यह दृश्य जगत भले ही नश्वर हो,
कालातीत, शब्दातीत अनश्वर है माँ |
क्रियाओं में रहकर भी नहीं रहती,
निरासक्त, निस्पृह, निर्लिप्त है माँ |
क्रियाओं के न रहने पर भी रहती,
अविचल, तटस्थ गुणातीत है माँ |
विशालता को क्षुद्रता में मत खोजो,
जीवन के हर पृष्ठ पर है माँ |
ब्रह्माण्ड में जो अविराम गूंजे,
वह पावन ॐ कार स्वर है माँ |
शब्द-चातुर्य माँ क्या जाने,
जीवन-मुक्ति की सीधी डगर है माँ |
ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र को झुलाती जो,
सती अनुसुइया के साथ अमर है माँ |
अयं निजः परोवेति माँ क्या जाने,
वसुधैव कुटुंबकम की पक्षधर है माँ |
सुख के स्वर तो अनेक होते हैं,
किन्तु हर दुःख में ओठ पर है माँ |
सप्त सिंधु जल मशी बन जाए,
सकल विपिन लेखिनी बन जाए,
धरती गर कागज बन जाए,
माँ की महिमा लिखी न जाए |
– हरिकिशन मूंधड़ा
कूचबिहार
रचना तिथि – १८/११/१८