ईर्ष्या
कभी-कभी न चाहते हुए भी,
गाहे बगाहे हमें चकमा दे,
हमारे भीतर ईर्ष्या प्रवेश कर ही जाती है ।
यदि हम सजग है
तो तुरंत इसे बाहर निकाल फेंकते है
किन्तु यदि जरा भी चुके
तो यह छोटी सी चिनगारी
भीषण आग का रूप धर
भीतर ही भीतर
हमारे आनन्द के सब खजाने
जला कर खाक कर देती है ।
और खजाने की जगह
भर देती है निंदा, द्वेष
उदासीनता, नकारात्मकता
की गहरी कालिख ।
फिर हम जो है वो कहाँ रह जाते है ।
हमारे भीतर रहकर
हमसे ही हमारी पहचान छीन लेती है।
हम खोजने लग जाते है
पर छिद्रान्वेषण में स्वयं की सार्थकता ।
हमारे स्वयं के लक्ष्य बौने हो जाते है
ईष्या के उस कद के आगे ।
हमारे हाथ आती है
तो बस छटपटाहट ।
इसलिए मन के सजग प्रहरी बन
ईर्ष्या को भीतर आने से रोकना है ।