ईप्सित
कोई ‘अवसर’ अगर रास्ता
नहीं देता है तो
तुम मुझे धक्का दे कर
आगे निकल जाना
किश्तों में अंकुरित हूँ मैं
कुछ स्वप्न
कुछ उम्मीद
इन खिलौनों से
आपने आपको बहलाता
रहता हूँ मैं
सब यात्रियों को एक
निरापद रास्ते की तलाश
रहती है
सुरक्षित रिआयत को
बदलने की कोशिश
नहीं करनी चाहिए
अगर असंभव का पलड़ा
भारी हो गया तो….
धूआँ धूआँ पौष का सबेरा
आज भी वह मृग शावक
भ्रम में भागकर आ जाता है
मृदंग की शब्द सुन कर
मेरे भीतर के खालीपन में से
एक आवाज निकल रही है
मुक्ति के लिए
उस यात्रा से
उस उम्मीद से
उस स्वप्न से
मगर बधिर है समय
हे, मेरे इप्सित !
मेरी भीतर से बाहर निकल आओ
मुक्त करो मुझे
उस इंतजार से जो
आज भी वह वृक्ष कर रहा है
और एक बुद्ध के लिए।
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पारमिता षड़ंगी