ईद मुबारक
ईद मुबारक
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एकता, प्रेम, सौहार्द, भाईचारे की मिसाल “ईद” को मुस्लिम देशों के अलावा अन्य देश व धर्मों के लोग भी ईद मुबारक कह कर बड़ी धूमधाम से मनाते हैं।भारत की प्रमुख विशेषता अनेकता में एकता के प्रतीक इस त्योहार में हिंदू भाई मुस्लिम घरों में जाकर गले मिलते हैं और सैवंई खाकर अपने प्यार का इज़हार करते हैं। भाईचारे के इस त्योहार की शुरुआत तो अरब से हुई है मगर ‘तुजके जहाँगीरी’ में लिखा है -जो जोश ,खुशी और उत्साह भारतियों में ईद मनाने का है , वह तो समरकंद ,कंधार, इस्फाहान , बुखारा, खुरासान, बगदाद और तबरेज जैसे मुस्लिम शहरों में भी नहीं पाया जाता है, जहाँ इस्लाम का जन्म भारत से पहले हुआ था। इस्लाम में दो प्रकार की ईद मनाई जाती है, एक ईद-उल-फितर एवं दूसरी ईद-उल-जुहा।जब हम ईद की बात करते हैं तो इसका तात्पर्य ईद-उल-फितर से ही होता है जबकि ईद-उल-जुहा को बकरीद कहा जाता है। ईद-उल -फित्र का दिन पवित्र रमज़ान माह के बाद आता है,जब सभी लोग पूरे माह रमज़ान के रोज़े रखने के बाद अल्लाह से दुआ करते हैं। इसके बाद शव्वाल माह आता है।और इस्लामिक कलैंडर के आख़िरी साल में जुल हज माह की १० तारीख को ईद-उल-अजहा मनाई जाती है।इस दिन हाजी हज़रात का हज पूरा होता है और पूरी दुनिया में लोग कुर्बानी देते हैं।ईद-उल-फितर को मीठी ईद भी कहते हैं।सेवइयों और शीरखुरमे की मिठास से लोग अपने दिल में छिपी कड़वाहट को भी भुला देते हैं।ईद-उल-अजहा को नमकीन ईद , ईदे कुरबाँ व बकरीद भी कहा जाता है। रमज़ान माह की इबादतों और रोजे के बाद ईद-उल-फितर का त्योहार जबरदस्त रौनक लेकर आता है। ईद का त्योहार हमें कुर्बानी का पैगाम देता है।कुर्बानी किसी जानवर की नहीं अपितु धन-दौलत और हर वह चीज़ जो हमें दुनियावी लालच में गिरफ़्तार करती है ,साथ ही हमें बुरे काम करने के लिए बढ़ावा देती है, उसका अल्लाह की राह में त्याग करना सिखाता है। इस्लाम के मुताबिक अल्लाह ने हज़रत इब्राहिम की परीक्षा लेने के उद्देश्य से अपनी सबसे प्रिय चीज़ की कुर्बानी देने का उन्हें हुक्म दिया। हज़रत इब्राहिम को लगा कि उन्हें सबसे प्रिय तो उनका बेटा है, इसलिए उन्होंने अपने बेटे की ही बलि देना स्वीकार किया।उन्हें लगा बेटे की बलि देते समय कहीं उनकी भावनाएँ आड़े न आ जाएँ , अत: उन्होंने आँखों पर पट्टी बाँध ली। जब बलि देने के बाद पट्टी हटाई तो उन्होंने अपने पुत्र को अपने पास ज़िंदा खड़े पाया तथा बेदी पर कटा हुआ दुम्बा (भेड़ जैसा जानवर) पाया । तभी से इस्लाम में इस मौके पर कुर्बानी देने की प्रथा चली आ रही है। इस्लाम में गरीबों और मज़लूमों का खास ध्यान रखने की परंपरा है। इस दिन कुर्बानी के बाद गोश्त के तीन हिस्से किए जाते हैं जिनमें से एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है तथा दो हिस्से समाज के गरीबों व मज़लूमों को बाँट दिये जाते हैं।ऐसा करके मुस्लिम यह पैगाम देते हैं कि वे अपने दिल की करीबी चीज़ भी हम दूसरों की बेहतरी के लिए अल्लाह की राह में कुर्बान कर देते हैं।रमज़ान के महीने के आख़िरी दिन जब चाँद का दीदार होता है तो अगले दिन ईद मनाई जाती है।ईद के रोज नमाज़ पढ़ कर हर बंदा अल्लाह को धन्यवाद देता है कि उसने उन्हें रोजे रखने की तौफीक दी। दरअसल ईद एक तोहफ़ा है जो अल्लाह इज्ज़त अपने बंदों को महीना भर रोजे रखने के बाद देते हैं । कहा जाता है ईद का दिन मुसलमानों के लिए इनाम का दिन होता है।इस दिन को बड़ी ही आसूदगी और आफीयत के साथ गुज़ारना चाहिए और ज़्यादा से ज़्यादा अल्लाह की इबादत करनी चाहिए।छोटे -बड़े सभी को ईदी लेने व देने का बेसब्री से इंतज़ार रहता है।बाज़ारों की रौनक, सुंदर ,आकर्षक नए कपड़े और सिर पर शोभित टोपियाँ दिल को लुभाने से बाज नहीं आते हैं। बचपन से किताबों में पढ़ी ईद की कहानियाँ दिल को इस कद्र छू गई हैं कि मैं भी रमज़ान माह में गरीबों, मज़लूमों की मदद के भाव से ओतप्रोत होकर बड़ी शिद्दत से रोजा खुलवाने हेतु समर्पित रहती हूँ, भाईचारे की रस्म को निभाते हुए गले लग कर सेवइयाँ खाती हूँ और प्यार से ईद के त्योहार में शामिल हो खुशियों का इज़हार करती हूँ । ईद मुबारक !!!
मुबारक ईद हो तुमको तुम्हारी दीद बन जाऊँ।
बनी मुस्कान अधरों की तुम्हारी प्रीत बन जाऊँ।
भुला रंज़ों ग़मों को प्यार से रिश्ते निभा डालो।
गले लग नेह बरसाती तुम्हारी ईद बन जाऊँ।
डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी(मो.-9839664017)