इज़हार
माहौल जब संज़ीदा हो तो म़सर्रत कैसी ।
चोट जब खाई हो दिल में तो म़ोहब्बत कैसी।
मिले जब ठोकरें कूचा- ए -यार से जब हबीब ।
क्यों न करें गुरेज़ा परत्तिश से ये फूटे जब ऩसीब ।
अब नहीं होता कभी म़ेहरो म़ाह का असर ।
दिन गुजरता है भटकते हुए तो गुज़रती रात नींद में बेख़बर ।
सूख गया है इन दीदों का पानी रह गई है फ़क्त पथराई पुतलियाँ।
अब न होती है हऱारत इस बदन में गिरता है जब बरसात का पानी और फलक में कौंधती है जब बिजलियाँ।
क्यों होगी जुंबिश द़रिया के ठंडे पानी से ।
जब त़र हो गया है ज़िस्म अपने ही चश्मे खूँ में नहा के।
व़क्त के माऱो को ए ख़ुदा ऐसी ज़िंदगी न दिला दे ।
टूट जाए जब भ़रम ऐसे रिंदों को म़ौत की नींद में सुला दे।