इस मानसिकता का जिम्मेदार कौन?
हम सभी प्रायः इस बात को अपने बड़े-बूढ़ों से सुनते रहते हैं कि समय बहुत बदल गया है और कभी-कभी अपने अतीत को पलटकर देखने पर हम भी इस बात का अहसास करते हैं। ये बात सौ फीसदी सच है कि वक्त बहुत तेजी से बदल रहा है और साथ-ही-साथ बदलती जा रही है लोगों की सोच, उनकी मानसिकताएं, भूमिकाएं, महत्वाकांक्षाएं, प्राथमिकतायें और भी बहुत कुछ।
आमतौर पर हम सभी बदलावों को सकारात्मक अर्थ में स्वीकार करते हैं और जहाँ तक मेरा मानना है, इसमें कोई बुराई भी नही है। लेकिन इन बदलावों को अपने जीवन में अपनाने से पहले हम सभी को एक सरसरी निगाह जरूर डालनी चाहिए क्योंकि ये बात किसी से छिपी नहीं है कि एक सिक्के के दो पहलू होते हैं । यहाँ इस बात से मेरा आशय यह है कि हमें किसी भी बदलाव के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर भली- भाँति विचार करना चाहिए।
इस लेख को यहाँ तक पढ़ने के बाद कुछ पाठक मेरे बारे में ये धारणा बना सकते हैं कि मैं परिवर्तन की विरोधी हूँ या पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हूँ। मगर ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। ये बात मेरे आगे के लेख से आप जान सकेंगे। मैं भी इस तथ्य से सहमत हूँ कि “change is the law of nature.” और इस तथ्य को कभी नकारा भी नहीं जा सकता।
वर्तमान में लोगों की सोच में सबसे ज्यादा तेजी से परिवर्तन हो रहा है विशेषकर युवा वर्ग ने अपनी मानसिकताएं पूरी तरह से बदल दी हैं। माँ-पापा की अहमियत उनकी नजरों में कम हो रही है और उनके फैसलों पर बडों के अधिकार नहीं रह गए है।
इस मुद्दे से जुड़ी एक घटना है। बात पिछले महीने की है। मेरे पड़ोस की एक दीदी अपने ससुराल से आई हुईं थी। मायके में आकर वैसे भी हर लड़की ऐसा महसूस करती है जैसे उसे उम्रकैद के बीच मे जेल से बाहर जाने की कुछ दिनों के लिए मोहलत मिली हो। घर के काम से उन्हें कोई मतलब नहीं था इसलिए पूरा दिन बातचीत में ही बीतता था। पड़ोस की चाचियां, भाभियाँ और कुछ बड़ी लड़कियाँ भी अपने घर के काम निपटाने के बाद पूरी दोपहर दीदी के साथ चर्चाओं में बिताती थीं। हमारे पड़ोस में कुछ महिलाओं को तो बातों का इतना शौक है कि उनका घर का काम चाहे पड़ा रह जाए पर वो पंचायत में जरूर शरीक होंगी।
एक दिन मैं अपने बाहर वाले कमरे में बैठी हुई थी। वहाँ से उन लोगों की आवाज साफ-साफ आ रही थी। बात शादी और ससुराल की चल रही थी। सभी अपने-अपने अनूठे तर्क प्रस्तुत कर रहीं थी। थोड़ी देर बाद एक लड़की ने कहा- मैं सोचती हूँ मुझे ऐसा ससुराल मिले जहां सास-ससुर गुजर चुके हों। मैं उसकी बात सुनकर हैरान रह गई। मन तो किया कि तुरंत जाकर कह दूं कि जैसा तुम सोचती हो शायद यही सोच तुम्हारे घर में आने वाली दूसरी लड़की की हो तो! खैर, मैंने कुछ नहीं कहा।
लेकिन इस बात ने मुझे ये सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि हम बदल तो रहे हैं लेकिन किस मकसद से? बदलाव सही दिशा में हो तब तो सही है लेकिन जब ये बदलाव हमारे आज और आगामी दिनों के लिए अहितकर हैं तो फिर इनकी कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। हमारा वर्तमान एक अंधेरे गर्त में धकेला जा रहा हैं जहाँ अच्छाई और बुराई की पहचान मुनासिब नहीं है।
इस मानसिकता का जिम्मेदार किसे ठहराया जाए- खुद को, समय को, समाज को, आधुनिकता को, राष्ट्र को, संस्कृति और सभ्यता को या किसी और को?
– मानसी पाल