इस बार सावन में
हरियाया नहीं जी
हुलसा नहीं मन मेरा
हरी साड़ी और चूड़ियाँ पहनने को
एक भी दिन बिंदी हरी लगाने को
न ही रचाने को मेंहदी अपनी हथेली पर
और न ही डोला ये मन बावला मेरा
डालने को झूला किसी पेड़ पर
इस बार सावन में।
अरे!
मन हुलसे भी कैसे ?
मन डोले भी कैसे ?
बीचला टोल वाले रामधनी काका का
एकलौता तेतरा बेटा सगुनवा
आ गया ठनका के चपेट में और
चल बसा इस दुनिया से
महज़ दस साल की उम्र में
दहाडें मार कर रोती-बिलखती
उसकी माँ-बहनें हो गई हैं मौन अब।
और तो और
उत्तरबाड़ी टोला की
बेचारी रमनी काकी
जिसके एकाकी जीवन का
एकमात्र सहारा उसकी गाय थी
जिसके दूध से कर लेती थी गुजारा वो
उसे भी तो छीन लिया
इस बेरहम ठनके ने।
अरे पछवाड़ी टोला का ही
हाल कौन-सा अच्छा है ?
दिन-रात के मूसलाधार बारिश से
बीरन के घर का छप्पर गिर गया
तो नथुनी काका का छानी उजड़ गया
हजारी भैया का टटिया भड़क गया
टोला भर के मरद लोग तो
सामुदायिक भवन के शरण में
रात गुजार लेते हैं किसी तरह
लेकिन बच्चे दर-दर चूते घरों में
खाट पर उकरू मार कर
कुनमुनाते रहते हैं और
औरतों का घरों से पानी
उपछते-उपछते भोर हो जाता है।
एक तो मुआ कोरोना ने
इस साल को लूट लिया
ऊपर से आफत बाढ़ भी आ धमकी
अरे ! जिन खेतों में अभी
धान का पौधा बिट्टा बांध कर
छितरा गया होता
दिख रही होती दूर-दूर तक
हरी-हरी चादर
वहाँ बाढ़ की बेरंग पानी
खल-खल कर रही है
किसानों के खून-पसीने को
बेरंग करके।
फसल तो फसल बस्तियों को भी
लूटने को मचल गई बाढ़
और इस मुराद को पूरी भी करने लगी
तोड़कर तटबंधों को
लाँघकर नदियों की सीमाओं को
लीलने लगी आबादियों को।
बचे-खुचे भयाक्रांत चेहरे
हौसले की बोरी सर पर उठाए
उम्मीदों की गठरी कांख दबाए
बढ़ चले हैं
पटरियों और राजमार्गों की तलाश में
अपनी विस्थापित जिंदगी को
स्थापित करने की आस में।
तो
इस तने-तने से वक्त में
अपने चारों तरफ से उठती
हाहाकारी ध्वनियों-प्रतिध्वनियों को
भला ! कैसे अनसुना कर दूँ ?
कैसे अनदेखा कर दूँ ?
इस बार सावन में।
©️ रानी सिंह