इस बसन्त
इस बसन्त बीत जाये ठिठुरन रिश्तों की
मन का भ्रमर पूछे फिर अनुराग का पता
फूल खिले चहूँ ओर विश्वास के
सन्देह की बर्फ़ अब कुछ पिघलें ज़रा
मादक हवा बहे जो उतरी दिशा से
महकाये अब हर जीवन-आँगन
निराशा का पतझड़ गुज़रे
नूतन आस की अब कोपल फूटें
मृद बोल कोयल की कूक से
मरहम बनें कडवें जखम के
उन्मुक्त आकाश में उसूलों की डोर थामे
बेधड़क उड़े रूपहले सपनों की पतंग
सरस्वती का अब हाथ थामे
लक्ष्मी करे जीवन में आगमन
उल्लास मख़मल घास-सा
चूमे प्रगति पथ पे क़दम
-शालिनी सिंह