इस दिवाली भी
जब भी इन फटती – दरकती दीवारों को देखता हूं तो लगाता है जैसे कंस किले की ये बूढ़ी बीमार दीवारें मिट्टी की उल्टी कर रही हों। इस वीरान किले को कोई आबाद किए है, तो ये पुराने मंदिर और यहाँ – वहां उग आई आक, बबूल और कीकर की बेतरतीब झाड़िया ही, जिन पर बंदरों के झुंड खींचतान मचाए रहते हैं ।
जब जब यहा आता हूं, तब तब रईसुद्दीन याद आता है या ये कहूं कि जब जब रईसुद्दीन याद आता है, तब तब यहाँ चला आता हूं। रईसुद्दीन मेरा यार । दिल का हीरा । नाम भर का नहीं, सचमुच का रईस।
ऐसा ही होता है…….. जिंदगी के हाथ से छूटा हुआ दौर भले कभी न लौटे, लेकिन उसका साया मन की बस्ती में उम्र भर के लिए डेरा डाले रह जाता है। यह किला, लाल पत्थर की यह भगन नक्काशी , कंस का यह पुरातन वैभव……… यहां उसके साथ बैठ बैठकर उम्र के बेहिसाब लम्हे खर्च किए मैने। वो वृंदावन की मथुरा गेट पुलिस चौकी के पास रहता था और मैं वहा से कोई चार छह कदम दूर गौडीय मठ में। इनके बीच जो शाही मस्जिद है, हमारी यारी का फूल उसी के साए में खिला और हमे जोड़ने वाला तार था ये सावरा बंसीवाला……
वो इसी मस्जिद के पीछे की बनी एक छोटी सी कोठरी में बैठा बैठा ठाकुर जी की पोशाकों पर कसीदाकारी किया करता था।जाने कैसा जादू था उसकी पतली लम्बी उंगलियों में। एक से एक नमूने बनाता। एक से एक बूटे काढ़ता । उसकी सुई कपड़े के भीतर डूब डूबकर यूं निकलती जाती जैसे कोई हंस मोती चुन चुनकर लहरों पर रखता जा रहा हो। जब कसीदाकारी कर रहा होता तो लगता की किसी दूसरी ही दुनिया में चला गया है।
एक बार तो पूरी तैयार पोशाक वापस ले गया । बोला, ‘ रात को कन्हैया ख्वाब में आए और बोले ,’रईस ये कैसे बेडौल बूटे काढ़ दिए रे। मुझसे न पहनी जायेगी ये पोशाक …….’ मैने उससे कहा , ‘ क्यों बे हमारे ख्वाब में तो आज तक न आए कन्हैया। तेरे पास कैसे चले आए…..’
वह हस दिया,’ अमां यार , तू नहीं समझेगा …. शिकायते तो बस अजीजो से ही की जाती है…. ‘
चार दिन बाद जब उसने वही पोशाक लौटाई तो लग रहा था जैसे किसी बाग से तोड़कर असली फूल टांक लाया हो। मजाल कि कोई रंग इधर से उधर हुआ हो। बूटो के बीच की दूरी जरा भी गड़बड़ाई हो। कोई ताना आपस मे उलझा हो। कोई मोती ओंधा लगा हो।
शाम को जब फुरसत होती, हम सांवले आसमान और सांवली जमुना की इस जुगलबन्दी को निहारने चले जाते। कभी- कभी दोपहर भर कस किले के इन्ही परकोटो पर टंगे टंगे बिता देते। पतंग के पंछी को कलाबाजियां करने आसमान के पेड़ तक कैसे पहुंचाया जाता है, यह साधना रईस की उस्तादी में यही तो की थी मैंने। अपनी शायस्तर मिजाजी के पर्दे में वह मुहल्ले भर को चकमा देकर अपने इश्क के मंसूबे रंग लिया करता था।
‘ मैं कल पतंग में बांधकर आपकी छ्त के ऊपर खत भेजूंगा, आप पढ लेंगी ना?
कसम बंसीवाले की जिस दिन रईस ने यह बात छुट्टन चच्चा के बेटी आतिया को लिखी, मेरे पाव ऐसे कांपने लगे जैसे अचानक जुड़ी चढ़ गई हो। इश्क उसका, इजहार उसका, पर डर के मारे ये गोसाई मरा जा रहा था।
उस बेखौफ बंदे ने पतंग में बांध बांधकर एक दो नही पूरी सात चिट्ठियां भेजी थी आतिया को । पर उसकी ओर से कोई जवाब न आया। उस बेचारी के अपने डर थे । अपने दायरे थे।
एक दिन जमुना किनारे बैठे बैठे उसने मुझसे कहा, ‘यार गोसाई , मैं कई बार एक सपना बार बार देखता हूं कि मैं कही दूर ऐसी जगह पर हूँ, जहां ऐसी ही लहरे हैं। ऐसे ही दीये । बस घाट पर बड़ी बड़ी लपटे उठ रही है। पता नहीं वो कौन जगह है, पर एक दिन मैं वहां जाऊंगा जरूर………. ‘
किसे मालूम था कि वो दिन इतनी जल्द आ जाएगा। वो कार्तिक का ही महीना था , जब वो वृंदावन की गलिया छोड़का जिंदगी के रास्ते पर आगे चला गया । जाने से पहले दीवाली के लिए खास पोशाक बनाई थी उसने । में उसके मुहल्ले में दिया बारने जाता इससे पहले वो खुद चरागों से भरा थाल लेकर चला गया। आखो में गीले मोती भरे बोला , ‘ गोसाई जब तक मै लौट न आऊ तब तक दीवाली के रोज मेरे हिस्से के चरागों को मुहल्ले की हर चौखट पर तू रौशन करते रहना। ‘ फिर कन्हैया के नैनों पर टकटकी बांध कहने लगा , ‘ देखो मियां , इस बार अपनी तमाम मोहब्बत पिरो लाया हूं इस पीले रेशम में, सो भूलकर भी नुक्स निकालने ख्वाब मे न आ जाना । वैसे भी कौन जाने अब् कब पहना पाऊंगा इन हाथों का कसीदा ।
आतिया को आखिरी चिट्ठी भी उसने जाने से ठीक पहले लिखी थी। लिखा था, ‘ मैं परसो बनारस जा रहा हूं । अच्छा काम मिला है। जानता हू अच्छी रोजी वाले लड़के के लिए चचा ना नही करेंगे । लेकिन रिश्ता तभी भेजूंगा जब बढ़िया सा टीवी खरीद लूंगा। जानता हूं आपको टीवी का कितना शौक है। तथी तो धापो खाला की गालियां खा के भी उनके घर देखने पहुंच जाती है….. ।
उस रोज सांझ के घुप्प अंधेरे मे पहली बार छुट्टन चचा की छत से सुरीला जवाब आया, ‘ करि गए थोरे दिन की प्रीति…….. कहं वह प्रीति कहां यह बिछुरनि, कहं मधुबन की रीति………’
जाने कैसी पीर थी उस सुर में मै फफक उठा। वो भी। तीसरे रोज वो चला गया। जाते हुए कहने लगा, ‘ देख गोसाई, आतिया की खैरियत लेते रहना। वैसे मैं भी कौन हमेशा के लिए जा रहा हूँ। जहाज का पंछी जहाज पर ही लौटता है, सो थोड़ा बहुत पैसा बनाकर , नया हुनर सीखकर लौट आऊंगा ।
उसके जाने के बाद बसंत बीता। सावन बीता। हिंडोले, फूलडोल, जन्माष्टमी, दीवाली, अन्नकूट, कंस मेला, एक एक कर पूरा साल सरक गया। इस बीच यहां जो कुछ हुआ, वो सब मै उसे लिख भेजना चाहता था, पर कहां? उसका कोई पता ठिकाना तो था ही नहीं। पूरे डेढ़ साल बाद उसकी चिट्ठी आई, ‘ गोसाई , यहा सब ठीक है। मैं बनारसी साडियो के बेल बूटे डिजाइन करने लगा हूँ। ज्यादातर काम कागज पर ही होता है सो सुई अब कम ही उठाता हूं, पर बड़ी बात ये है कि मैंने टीवी खरीद लिया है। आतिया कैसी है, कैसे भी तू उसे ये खबर जरूर सुना देना और लौटती डाक से तमाम खैरियत लिख भेजना….. हो सका तो साल – छह महीने में लौट आऊंगा और जब आऊंगा तो माशाल्लाह उस बंसीवाले के लिए ऐसी पोशाक बनाऊंगा क़ि वो खुद ख्वाब मे आके दाद दिए बिना न रहे । देख तो वृन्दावन क्या छूटा, इन हाथो से सुई ही छूट गई…… शायद इसीलिए छूट गई है कि जिसके लिए उठती थी, मै उसे ही पीछे छोड़ आया….’
जवाब मे मैंने उसे कोई चिट्ठी न लिखी । कैसे लिखता? जो लिख देता तो जहाज पर लौटने से पहले पंछी के पा टूट न जाते! लेकिन वो हर पंद्रह दिन में चिट्ठी भेजता रहा, कभी लिखता,’ सुन गोसाई, कहीं ये कन्हाई जान रुठ तो नही गए……. बड़े दिन हुए ख्वाब मे आए ही नही……’
वह चिट्ठी दर चिट्ठी आतिया की खैरियत पूछता रहा। मैं भला कब तक न बोलता । चार आखर लिख बता ही दिया कि भाई तेरी आतिया अब वृन्दावन मे नही रहती। वह एक मौलाना की बीवी है। सुना है उसके यहां टीवी तो क्या गाने की भो पाबंदी है……. मै जानता था यही होगा। इस चिट्टी के बाद वह लंबी चुप्पी साध गया । फिर कोई साल भर बाद उसकी चिट्ठी आई, लिखा,’ गोसाई, आतिया कभी तो वृदावन आती होगी। कैसी है? खुश तो है ना? यहों मैंने बहुत पैसा कमा लिया है, फिर भी पता नहीं क्यों कमाए जा रहा हूं। यार तुझसे क्या छिपाऊ…….. इस चिकने फर्श पर चलते हुए मुझे वो खुरदुरी कोठरी याद आती है। गौड़ीय मठ से बहकर आती मृदंग की वो धापें और उसमें घुल घुल जाने वाली मस्जिद की वो अजान याद आती है, आतिया याद आती है। तू याद आता है और वो बंसीवाला भी………. यार मेरे जाने के बाद क्यों अब ये लगने लगा है कि वो रईसी यादों की दराज के सिवा मुझे कही न मिलेगी’
जिस दिन रईस की यह चिट्ठी आई, मैं इसी किले के परकोटों से सटकर खूब रोया । लेकिन आखो का क्या? ये तो अब भी नम है। ऊपर कार्तिक का आसमान है और नीचे कृष्णमयी जमुना। लहरो पर दीयों की पांते टकी है और आसमान मे दूधिया तारे तैर रहे हैं। पूरे बीस साल हो गए उसे गए । दो रोज बाद दिवाली है….. सोच रहा हूं उसके हिस्से के दीये जलाने के बाद झिंझोडकर इन कन्हाई से पूछ ही लू, कि’ क्यों बंसीवाले! जाने वाला हर पंछी जहाज पर क्यो नहीं लौटता? राम लौटे थे, पर तुम नही लौटे……. इतना तो बता ही दो कि मेरा यार लौटेगा या नहीं? जानता हूं उसे बुरा नहीं लगेगा । आखिर रईस कहता था ना कि शिकायते बस अजीजों से ही की जाती हैं…….. I