इस दर्द को यदि भूला दिया, तो शब्द कहाँ से लाऊँगी।
अंधेरी गलियों में अकसर गुम हो जाती हुंँ मैं,
रौशनी को तरसती हैं आंखें मेरी, इतनी घबराती हुँ मैं।
विश्वास ने छला है ऐसा, आस्था भी डराती मुझको,
रज्जु में भी सर्प है दिखता, कैसे समझाऊंँगी तुझको।
अग्निवर्षा ऐसी हुई, शीतलता भ्रम फैलाती है,
सूरज की वो लालिमा भी, रक्तरंजित सी नजर आती है।
आरोपों के तीरों से, ऐसा चरित्र को भेदा जाता है,
कि कोयल का मधुर स्वर अब, कानों को विषाक्त कर जाता है।
धारणाएँ ऐसी तोड़ी गई, लज्जा को भी शरम थी आयी,
अस्तित्व पर वो प्रश्न उठे, प्रकृति भी थी थर्रायी।
अंर्तमन में द्वंद उठा, क्रोधित हुँँ या बनूँ वैरागी,
मध्यम मार्ग का संग मिला, मौन बना मेरा अनुरागी।
घाव सूख चुके अब मेरे, पर छाप कैसे मिटाऊँगी,
इस दर्द को यदि भूला दिया, तो शब्द कहाँ से लाऊँगी।