इस छोर से उस कोने तक
इस छोर से उस कोने तक, जो खामोशी सी पसरी है।
अनकही, अनछुई कुछ बातें, मानस में कुछ – कुछ उभरी हैं।
एक शून्य बाँधकर नयन डोर उतरा करता है इस पुल से,
चल खो जाएं सायों की तरह, इस शेष बचे दुर्लभ पल में।
शब – शाम यहाँ पर मिलते हैं, न जाने कितने अरसों से।
न जाने कितनी ही बाते, रखी है सहेजी बरसों से।
एक मौन नदी सी बहती है, तेरे मन तक मेरे मन से।
चल होंठ हिला कोई बात, चला इस शेष बचे दुर्लभ पल में।
अब वक़्त और न ठहरेगा, रातें रीती रह जाएंगी।
फिर तेरा होगा पता नहीं ध्वनि मेरी भी खो जाएगी।
चल आँखो से ही कुछ कह दे, यही भेंट माँगती हूँ तुझसे।
फिर सोचोगे, कुछ कह पाता इस शेष बचे दुर्लभ पल में।।
-शिवा अवस्थी