“इस्तिफ़सार” ग़ज़ल
ये दौरे-तग़ाफ़ुल का सफ़र क्यों नहीं जाता,
राहे-वफ़ा से वो भी, गुज़र क्यों नहीं जाता।
क्या देखता है, घूम-फिर के, आइने मेँ वो,
इक बार, तबीयत से, सँवर क्यों नहीं जाता।
बूँदों को, देखता है वो, बारिश की एकटक,
अश्क़ों पे मिरे, ध्यान मगर, क्यूँ नहीं जाता।
तारीकियों का राज, मुद्दतों से है यहाँ,
इक बार ताब, मेरे शहर, क्यूँ नहीं जाता।
हावी है तसव्वर पे, अभी भी वो भला क्यूँ
उस शख़्स की बातों का,असर क्यों नहीं जाता।
लमहात के दरपन मेँ, उसी का है अक्स क्यूँ,
मेरी ही तरह वक़्त, बिखर क्यों नहीं जाता।
अहबाब परीशाँ हैं, मिरे दिल के हाल पर,
ज़िन्दा है जो ख़याल, वो मर क्यों नहीं जाता।
सरगोश, सदाएँ वो, कहीँ जाँ ही, न ले लेँ,
कितना भी हो इलाज, ज़हर क्यूँ नहीं जाता।
“आशा”हुआ बेख़ुद हूँ , समझ पाऊं भी कैसे,
हूँ दूर, पर यादों का क़हर, क्यों नहीं जाता।
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