आदमखोर
आदमखोर
अब नहीं रहा जंगल घनघोर
शहर में आ गए आदमखोर।
जंगलवाले खून के प्यासे थे
शहरवाले हैं जिंदा मांसखोर।
वो आदमी मारकर खाते थे
अब औरत के हैं जिस्मखोर।
ये खाते नहीं हैं, मांस मगर
मांसल अंगों को देते निचोड़
उन मांसल अंगों को नोचते
क्षत-विक्षत कर देते हैं छोड़।
रोज नजरों से होती घायल
जाए औरत चाहे जिस ओर।
“जिन अंगों से जीवन पाला
जिन अंगों से जीवन ढाला
वही बने हैं दुःख के कारण
वही बनी औरत तन हाला।”
जंगल-शहर में अंतर इतना
वो खुले,यहाँ छुपे आदमखोर।
वो क्षुधा तृप्ति को खाते थे
ये हवस पूर्ति के आदमखोर।
जंगलों में ही तब वो रहते थे
ये तो शरीफों में छुपे हरओर।
©पंकज प्रियम