“इशारे” कविता
नहीं भूल पाता, चमत्कार उनका,
मिलन अप्रतिम, उफ़ वो नदिया किनारे।
नयन-बाण, तरकश के, रीते हुए सब,
निगाहों के मादक, वो चँचल इशारे।
अधर उनके रक्तिम, कनक-वर्ण आभा,
घने केश, मतवाले, मेघों से प्यारे।
नयन-घट, से छलके जो मदिरा निरन्तर,
जलेँ क्यों न मुझसे, भला, देव सारे।
शरारत पवन को भी, सूझी अजब सी,
गिरा उनका आँचल, हुए हम बेचारे।
रहा धड़कनों पर था, अब तो न काबू,
जो इक पल मेँ सब, हो गए वारे-न्यारे।
है स्मृति मेँ अब तक, वो कोमल छुअन क्यूँ,
कहूँ कैसे, क्यूँ, उन पे दिल हम थे हारे।
विचारों मेँ उनका ही, प्रतिबिम्ब उभरा,
थे क्यूँ हो गए हम, उन्हीं के सहारे।
चमकते हुए चन्द्र, वो ही हैं बेशक,
भले व्योम मेँ, अनगिनत हैं सितारे।
अभी भी वो आते हैं, स्वप्नों मेँ अक्सर,
निराशा मेँ “आशा” वही हैं हमारे..!