इल्जाम रिश्तों के
रिश्तों के चौराहे पर,
तोहमतों के अंबार पर खड़ा हूं।
भाई ने इल्जाम लगाए सो लगाए,
लगाए इल्जाम पिता ने भी।
पत्नी ने इल्जाम लगाए सो लगाए,
लगाए इल्जाम मां ने भी।
बहन ने इल्जाम लगाए सो लगाए,
लगाए इल्जाम बेटी ने भी।
सबको खुश करने चला था,
कर ना सका खुश किसी को।
जिन चेहरों पर देखना चाहता था खुशी,
पेशानियां हैं उनकी शिकायतों से तनी।
अपनी छोड़ सोचा जिनके बारे में पहले,
वो नहीं तैयार कि कुछ गम वो भी सह लें।
ताबूत में आखिरी कील बची थी,
सो लगाए बेटे ने, कहा –
“नसीब न हो तुझ सा बाप किसी को,
अरे, तेरे जैसा बाप होने से तो अनाथ होना अच्छा है।”
एक औरत की कहानी को मिलती है आवाज,
मर्द की कहानी रह जाती है बेजुबानी।
ज़रा नज़र – ए – इनायत यहां भी हो जनाब,
पत्थर भी पिघलते हैं, ज़लज़ले भी कांपते हैं।
मर्द भी तन्हाई में रोते हैं, उन्हें भी दर्द होता है।