“इफ़्तिताह” ग़ज़ल
उससे उल्फ़त का, इफ़्तिताह किया,
हमने ख़ुद को ही ज्यूँ, तबाह किया।
याद है अब भी, तबस्सुम उसका,
दिल को मेरे था, जो मिराह किया।
मुझको, क्या ख़ूब दी सज़ा उसने,
गोया मैंने, कोई, गुनाह किया।
उफ़, वो शफ़़्फाफ़ सा बदन उसका,
हमने शोहरत को अपनी, स्याह किया।
उसको आता नहीं, यक़ीं क्यूँकर,
इश्क़ हमने था, बेपनाह किया।
उसका अहसान, कम नहीं, आशा”,
आह निकली, तो उसने वाह किया..!
इफ़्तिताह # प्रारंभ, उद्घाटन आदि, opening, inauguration etc.ः
मिराह # प्रसन्न, gladness, joy etc