इन ख़यालों के परिंदों को चुगाने कब से
ग़ज़ल
इन ख़यालों के परिंदों को चुगाने, कब से
लिये बैठा हूँ तग़ज़्ज़ुल के मैं दाने कब से
दिल में दीदार की हसरत ये लिए बैठे हैं
मुंतज़िर हैं तेरे महफ़िल में दिवाने कब से
नींद मशग़ूल मेरी तेरे ख़यालों के साथ
आके बैठे हैं तेरे ख़्वाब सिरहाने कब से
मेरा रब इज़्ज़त-ओ-शोहरत को बचा लेता है
यूँ तो बैठे हैं कई हस्ती मिटाने कब से
अपने ही पास रखो मशविरा अब अपना “अनीस”
ख़ूब! अंधे भी लगे राह दिखाने, कब से?
– अनीस शाह ‘अनीस’