22, *इन्सान बदल रहा*
इन्सान बदल रहा
आज के दौर में इन्सान कितना गिर गया।
अपने ही बनाऐ ऊसूलों से बदल रहा।
दौलत की चकाचौंध में घिर कर,
इन्सानों के दिल से खेल, खेल रहा।
मुखौटे में छिपा कर खुद को,
रोज चेहरे पर चेहरे बदल रहा।
किसे समझे अपना, किसे पराया
हर रोज इन्सान रंग बदलने में..
गिरगिट से भी आगे बढ़ रहा।
चेहरे पर झुठी मुस्कुराहट की ओट में
दिल में ना जाने कितनी कटुता भर रहा।
कोठियां बड़ी-बड़ी बनाकर भी…
सोच कितनी छोटी रख रहा।
दूसरों को दु:ख देकर,
खुद खुशियों की राह देख रहा।
कौन है विश्वास के लायक यहाँ?
अपने फायदे के लिए इन्सान…
हरपल विश्वासघात कर रहा।
ना घबरा लोगों के सितम से ‘मधु’….
हरपल खुदा सबका हिसाब लिख रहा।