“इन्तेहा” ग़ज़ल
ना तो सुनने की, ना सुनाने की,
निहाँ है तर्ज़, इक तराने की।
क्यूँ वो जाता नहीं, तसव्वर से,
कोशिशें लाख कीं, भुलाने की।
दिल धड़कता है, उसकी आहट से,
मिल ही जाती है ख़बर, आने की।
जब भी उसके, क़रीब आता हूँ,
बात करता है, दूर जाने की।
उससे अब इश्क़ भी क्या फ़रमाऊँ,
उसमें क़ुव्वत कहाँ, निभाने की।
किया शीरीं ने, तो फ़रहाद ने भी,
बात है पर ये, उस ज़माने की।
आज क्यूँ आ गए, तिरे आँसू,
तुझको आदत थी, मुस्कुराने की।
मुझको बेख़ुद है, कर दिया तूने,
आ गई इन्तेहा, फ़साने की।
नाम आएगा, तिरा ही “आशा”,
चलेगी बात जो, दिवाने की..!
निहाँ # छुपी हुई, concealed, hidden etc.
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