इन्तजार और संशय
इन्तजार सा रहता था,
डाकिये का, हर शाम को,
देखने को चिट्ठिया, टिकट रंग-बिरंगे।
सीखा था दौड़ना मैंने,
उसके पीछे दौड़ते हुए।
समझा था अक्षरो को,
पढ़ चिट्ठिया अपनों की।
आयी थी अपनी पहली चिट्ठी,
मेरे प्रियतम की।
देख उसे निकले थे ऑसू केवल
मेरे नयनों से।
अब देख डर जाती हूॅ, डाकिये को,
कि थमा ना दे कहीे वो, काग़जात
मेरे तल़ाकनामे को।