इन्तज़ार
कभी मैं भी एक घर हुआ करता था,
जहां किलकारियों का मधुर स्वर हुआ करता था।
जहां गिरते पड़ते कदमों ने चलना सीखा था।
जहां बसते के भरे डब्बों पे माँ गुस्साती थी।
जहां गुलमोहर की छांव में वो सपने दिखाती थी।
और गर्मियों में छत पे गोद में सुलाती थी।
जहां सारा दिन माँ “खा ले बेटा” कह कर पुकारती थी,
और शाम दरवाजे पे इन्तज़ार में गुजारती थी।
पर उस कमब्ख्त वक्त ने घर को सराय बना डाला,
जो अब बस छुट्टीयों का ठिकाना है,
जहां अब बस आना और फिर चले जाना है।
जहां बीमार माँ सुने आंगन को निहारती है,
कब साँसे रुक जाये दुआ पुकारती है।
क्योंकी तभी तो अब वो आएंगे,
इस सराय में कुछ वक्त बिताएंगे।