इतिहास झारखंड और बिहार
भाग-१
महापंडित ठाकुर टीकाराम
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18वीं सदी में वैद्यनाथ मंदिर के प्रधान पुरोहित
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झारखंड के देवघर में अवस्थित बारह ज्योतिर्लिंगों में 16वीं शताब्दी से मठ प्रधानों की परंपरा होने की जानकारी अभिलेखों के आधार पर मिलती है। इसकी चर्चा इतिहासकार राखालदास बनर्जी ने भी की है।
18वीं सदी में इस बाबा वैद्यनाथ मंदिर के एक मठ- प्रधान हुए ठाकुर टीकाराम ओझा। तब इस पद के लिए ‘मठ-प्रधान’ या ‘सरदार पंडा’ जैसे नाम नहीं थे। उस समय इस पद का नाम था ‘मठ उच्चैर्वे’। इसका मतलब होता है – मठ का सर्वोच्च व्यक्ति। मठ उच्चैर्वे की जानकारी वहां के मंदिरों में गुम्फित शिलालेखों से प्राप्त होती है।
वैद्यनाथ मंदिर में इस पौरोहित्य परंपरा से पहले नाथ पंथियों का अधिकार था जिसे चंदेलवंशी राजपूत गिद्धौर नरेश ने मिथिलाधीश ओइनवार वंश के राजाओं की सहायता से कमज़ोर कर दिया।
16वीं सदी के उत्तरार्ध में बंगाल का शासन अकबर के हाथ में रहा। इस समय कछवाहा कुल के राजा मान सिंह का नियंत्रण इस इलाके में रहा। 1587 इस्वी के लगभग अकबर ने इन्हें रोहतास की जागीर दी। वे 1607 तक इस इलाके से जुड़े रहे।
मान सिंह ने इस काल में भागलपुर के अति प्राचीन बूढ़ानाथ मंदिर के समीप ‘मान मंदिर’ बनवाया जो आज भी उपस्थित है। यहीं पास में उनका घुड़साल (अस्तबल) भी है जिस पर अब भूमाफियाओं की नज़र लग गई है।
इस इलाके में मान सिंह द्वारा निर्मित कई संरचनाएं मिलती है जिनमें ‘राजमहल का किला’ भी है।
अपनी उड़ीसा यात्रा क्रम में वे सन 1590 में देवघर से होकर गुज़रे। यहां उन्होंने बाबा वैद्यनाथ का दर्शन किया। इस स्थान पर उन्हें जल की कमी खल गई। शिवगंगा के छोटे स्वरूप के कारण श्रद्धालुओं को हो रहे कष्ट को देखते हुए इसके पश्चिम स्थित एक छोटे तालाब को बड़ा कर उसके दक्षिणी किनारे को बलुआ पत्थर (सैंडस्टोन) से मढ़वा दिया। तदुपरांत यह घाट बहुत सुंदर हो गया था। यह घाट इस मंदिर के समीप था। वहां से वे उड़ीसा चले गए। मानसिंह की उदारता के कारण इस सरोवर का नाम ‘मानसिंही’ दे दिया गया। इसकी चर्चा ‘संताल परगना गजेटियर’ और ‘मान चरितावली’ में भी है।
इस समय बंगाल सूबे के देवघर का प्रक्षेत्र गिद्धौर के अधीन था। गिद्धौर से मिथिला का संबंध मधुर था। मान सिंह के पंडित भी मिथिला के थे। वहां के पंडितों की चर्चा आदिकाल से दूर-दूर तक थी। बंगाल की शाक्त परंपरा के प्रणेता भी मिथिला से ही थे। आज बंगाल को ‘शाक्त परंपरा’ का शीर्ष माना जाता है। राजा मान सिंह के समय मिथिलाधीश से अनुनय-विनय के पश्चात यहां पंडितों की नियुक्ति पुनः हुई।
बाबा वैद्यनाथ की नगरी वैद्यनाथ धाम को उन दिनों ‘देवघर’ का नाम नहीं मिला था। ये ‘वैद्यनाथ’ नाम से ही ख्यात थे। मिथिला के लोगों की इन पर अपार श्रद्धा थी। पुरालेखों से यह जानकारी भी प्राप्त होती है कि बाबा वैद्यनाथ से संतान मांगने मिथिला के लोग 14वीं-15वीं शताब्दी से पहले भी आते थे। महाकवि विद्यापति की रचनाओं में बैजू/शिव का होना भी बाबा वैद्यनाथ के प्रति उनकी निष्ठा को निरूपित करता है।
मिथिला के ओइनवार वंश के शासकों से जब गिद्धौर नरेश ने योग्य पंडितों की मांग की तब उन्होंने नरौछ ग्राम के गढ़ बेलऊंच मूल के भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मणों को बैद्यनाथ की पूजा शास्त्रीय ढंग से करने हेतु भेजा। इस समय नाथ पंथियों से इनका बहुत विवाद हुआ था। नाथ अस्त्र-शस्त्र चलाने में बहुत प्रवीण थे। ईस्वी 1770 के सन्यासी विद्रोह के समय भी ये बहुत उग्र थे किन्तु देवघर में तब सहअस्तित्व का इनका समझौता था।
सन 1596 में यहां के मठ के पंडित थे रघुनाथ। कहा जाता है कि ये उसी भारद्वाज कुल से थे जिन्हें खण्डवला कुल के मिथिलाधीश महामहोपाध्याय महेश ठाकुर ने यहां भेजा था।
सन 1744 में खण्डवला नरेश नरेंद्र सिंह का वैद्यनाथ आगमन हुआ। वे अपने साथ अपने मुख्य पुरोहित को लेकर आए थे। क्योंकि मनचाहे शास्त्रोक्त ढंग से यहां पूजा करानेवाले पंडितों का अभाव था। निर्धनता अधिक थी और आपसी संघर्ष भी। महाराजा नरेंद्र स्वयं काली और शारदा के साधक थे। वे युद्धकला में भी प्रवीण थे। इन्होंने 4 युद्ध लड़े। सभी में विजयी रहे। ये उत्कृष्ट दानी भी थे।
वैद्यनाथ से इनकी वापसी के समय गिद्धौर नरेश ने वैद्यनाथ की पूजा-अर्चना हेतु एक योग्य पंडित देने का अनुरोध किया।
अपने राजपंडित प्राणनाथ के पुत्र टीकाराम को उन्होंने यहां के मुख्य पुरोहित के लिए गिद्धौर राजा को सुझाव दिया।
विदित हो कि ओइनि वंश के आरंभ से ही दिगउन्ध मूल के शांडिल्य गोत्रीय ब्राह्मण ठाकुर कामेश्वर राजपंडित हुए थे जिनके वंश से प्राणनाथ थे।
सन 1745 में ठाकुर टीकाराम जी को आदर सहित लाकर मुख्य पुरोहित का पद सौंप दिया। इस समय तक इस मंदिर परिसर में कुल 5 मंदिर थे। छठे मंदिर के रूप में गणेश मठ का निर्माण सन 1762 में पूरा हुआ जिसकी प्रशस्ति में ठाकुर टीकाराम का नाम उत्कीर्ण है।
वैद्यनाथ मंदिर में पूजा-अर्चना हेतु मैथिल पंडितों की यह नियुक्ति पहले भी कई बार हुई थी। लेकिन कुछ असुरक्षा की भावना से भाग खड़े हुए थे तो कुछ डटे तो रहे किन्तु आपस की कलह में ही उलझकर अपनी आध्यात्मिक शक्ति से क्षीण हो गए।
साभार- उदय शंकर
इमेज : गणेश मंदिर का शिलालेख
(क्रमशः)