इतना ही बस रूठिए , मना सके जो कोय ।
इतना ही बस रूठिए , मना सके जो कोय ।
रूठा जो वो आपसे, मिलन कभी न होय ।।
आग में घी मत डालिए करती सदा विनाश ।
जीवन में अंधियारा हो , खो जाए प्रकाश ।।
खुद के घर में कलह घने , औरों को बांटे ज्ञान ।
खुद की सुध भी लीजिए , हो जाए कल्याण ।।
भाई ना देखे भाई को , बीच खड़ी दीवार ।
जितने चूल्हे जल रहे उतने ही परिवार ।।
घर के भेदी घर में हैं , क्यूं ढूंढों कहीं और ?
एक विभीषण मर गया अब जन्में चारों ओर ।।
मैं ही सबसे बेहतर हूं , बाकी सब यहां कौन ?
सब उत्तर मिल जायेंगे ,समय अभी है मौन ।।
लिखी वसीयत बाप ने , हृदय हुआ अधीर ।
बेटा सीधा हाथ है , बेटी सम्पूर्ण शरीर । ।
खत और चिट्ठी छूट गए लेकर हाथ में फोन ।
चुगलियों से टूटे घर , सही दिशा दिखाए कौन ?
सब पैसे के यार हैं , मतलबी सकल जहान ।
काम पड़े तो तू मेरा बाकी भाड़ में जाए इंसान ।।
मंजू सागर
गाजियाबाद