इज्जत की गठरी
ले मुझसे इज्जत की गठरी
ये भइया को दे बाबा
युग बीते सदियाँ बीती
मैं ढोते ढोते हार गई
ये इज्जत की गठरी मुझको
कदम कदम पे मार गई
हंसी खा गई खुशी खा गई
बचपन मेरा ढकार गई
युग बीते सदियाँ बीती
मैं ढोते ढोते हार गयी
इस गठरी को मैंने अपने
कदमो में फस जाते देखा
मेरी पेन्सिल मेरी किताबे
मेरा बस्ता खाते देखा
मेरे जीवन की कश्ती ये गठरी
बिच भंवर उतार गई
युग बीते सदियाँ बीती
मैं ढोते ढोते हार गई
किसके साथ थी कहाँ गयी थी
मुझसे पूछे जाती है
होंठो पे अम्मी अब्बा के
डांट कभी बन जाती है
छोड़ मेरे जहन में कितने
अनसुलझे सवाल गयी
युग बीते सदियाँ बीती
मैं ढोते ढोते हार गयी
खुले बाल क्यों छोटी कर
सादी सलवार हो निचा जम्फर
मेरी हर एक पसंद का
करती रोज शिकार गयी
युग बीते सदियाँ बीती
मैं ढोते ढोते हार गई
मेरे अब्बा मुझको शिक्षा दे
खुद दुनिया को समझ सकूँ
दे तालीम मुझको ऐसी
हर उलझन से खुद सुलझ सकूँ
वरना ये जीना क्या जीना
जिंदगी मेरी बेकार गई
युग बीते सदियाँ बीती
मैं ढोते ढोते हार गई
बेचैन भटकती सदियों से
अब चैन से सोऊँगी
तेरी इज्जत की गठरी दुनियां
अब और न ढोउंगी
सिर पे रख शिक्षा की गठरी
जिल्लत की गठरी उतार गई
युग बीते सदियाँ बीती
मैं ढोते ढोते हार गई।
नारी दशा राष्ट्र दशा का प्रतिबिम्ब है।
—ध्यानू