इजहार-ए-मुहब्बत
कुछ हर्फ़ रखे हैं मैंने
चुन कर लिफ़ाफ़े में
जो आते थे जुबां तक
और रुक जाते थे
कहना चाहता था मैं
मेरे लबों में सिमटकर रह गए
हर रोज बटोरता था मैं
यहाँ वहां से बिखरे हर्फ़
और फिर बुनता था
एक तानाबाना
काटछाँट करता था लफ्जों की
एक कुशल दर्जी की तरह
ताकि बन सके खूबसूरत सा
एक नज्म में ढला लिबास
सुनकर जिसको
हो जाओ तुम मदहोश
हो के बेखबर जहां से
कह दो मेरे दिल की बात
तुम्हारी जुबां से निकले
आब-ऐ-हयात मेरे दिल का
मिल जाए सुकून मेरी रूह को
मिट जाए बंधन जिस्मों का
एक हो जाएँ दो रूहें
मैं और तुम से बन जाएँ हम
मै नहीं चाहता करना इन्तजार
तुम कहो और मै सुनूँ
खुद ही कह देना चाहता हूँ
” इश्क है मुझे तुमसे
बेइन्तहा मुहब्बत है मुझे
क्या तुम भी करती हो
प्यार मुझसे ।
अपनाओगी मुझे”
” सन्दीप कुमार “