इंसान
अब सच्चा इंसान नहीं है।
करे छलावा मान नहीं है।
खेल हो रहा मानवता से,
कोई भी अनजान नहीं है।
मोल चुका सकता है सुख का,
पर पैसा भगवान् नहीं है।
पीर संग धीर न रह पाता,
चुप रहना आसान नहीं है।
रुख हवाओं का जो जाना,
मुश्किल कोई उड़ान नहीं है।
रोज झगड़ते है अब बर्तन,
घर मेरा वीरान नहीं है।
कद से बड़ा हुआ अब बचपन,
बच्चों सी मुस्कान नहीं है।”
#रजनी