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9 Jul 2021 · 3 min read

इंसान कभी रुकती नहीं

प्रस्तावना -समय हर घाव भर देता है , कितना ही गहरा क्यों न हो ! करोना के इस कुचक्र में न जाने कितनों को जख्म दिए पर सभी गुजरते वक्त के साथ उसे भूले तो नहीं मगर यादें धूमिल हो गई | ऐसी ही एक याद को समते है ये कहानी….. मेरी जुबानी | कहानी के पात्र काल्पनिक है , यदि किसी को भूली बिसरी याद में ले जाकर उनकी आँखें नम हो जाए तो मैं पहले से ही क्षमा-प्रार्थी हूँ |

गुरुग्राम के सेक्टर -69 की ‘स्वीट होम’ सोसायटी में सानिध्य अपने मम्मी – पापा के साथ एक खुशी से रह रहे थे , परन्तु करोना की दूसरी लहर ने इस परिवार को ऐसा बिखेरा कि अभी -भी तिनका -तिनका सिमेट रहा है | सानिध्य के लिए तो उसकी माँ ही उसकी दुनिया थी | सुबह के नाश्ते से लेकर रात को सोने तक उसे माँ ही माँ चाहिए थी जो एक आवाज़ पर उसकी ओर दौड़ी चली आती थी | “मम्मी मेरा खाना कहाँ है ? मुझे क्लास के लिए देर हो रही है ! आपने मुझे उठाया नहीं न ! आज तो पक्का अध्यापिका जी से मुझे लेट आने पर डांट पड़ेगी |” मैं क्या करूँ बेटा! सुबह -सुबह नानी का फोन आ गया और मैं उनसे व्यस्त हो गई पता ही नहीं चला कि कब इतना समय निकल गया ! मैं अभी कर देती हूँ बस-दो मिनट …| इतनी जल्दी सब कैसे होगा ? तुम जल्दी से दातुन करों मैं नाश्ता लाकर लैपटॉप ओं करती हूँ | कुछ दे बाद …. मम्मी ! “मेरी सामाजिक ज्ञान किताब नहीं मिला रही है |”टेबल पर होगी …. नहीं मिल रही न ……| मैं लाती हूँ, बेटा ! अब सब ठीक है मिल गई किताब .. सानिध्य कितनी बार कहा है कि अपनी चीज़ों को संभाल कर रखा करो … किसी दिन मैं न रही तो क्या करोंगे | अब तुम बड़े हो गये हो ! पर आपके लिए तो मैं छोटा -सा प्यारा सा बच्चा हूँ न | हूँ न पापा ? हाँ बेटा ! अब तुम ही देखों मुझे आफिस का कुछ काम है | जब से ये ऑनलाइन हुआ है मैं तुम दोनों को समय ही नहीं दे प् रहा हूँ | एक बार सब ठीक हो जाए फिर लंबी छुट्टी पर चलेंगे | कहाँ पापा ? नेनीताल या मनाली , नहीं इस बार हम विदेश चलेंगे -लंदन | सच पापा ! हाँ बेटा ! पूरा दिन ऐसे ही बीतता |
शनिवार का दिन था सुबह से ही सानिध्य की मम्मी कि तबीयत बिगड़ने लगी | शाम को बुखार और तेज हो गया | लॉकडाउन और इस भयावह महामारी के चलते सविता (सानिध्य की माँ ) ने डॉक्टर के पास न जाकर घर पर ही दवा ले ली | दो दिन के बाद भी जब ज्वर नही उतरा और सविता कि तबीयत और बिगड़ने लगी तो वे डॉक्टर के पास गए |
डॉक्टर ने उन्हें एडमिट कर कहा आप जाए अब ये हमारी ज़िम्मेदारी है हम आपको फोन के माध्यम से सूचना देंगे क्योकि इस भयावह महामारी में आपका निकलना भी उचित नहीं | टेस्ट करवाने पर सविता कि रिपोर्ट पॉजिटिव आई और उसके पति की नेगेटिव | सानिध्य को उसके नाना-नानी के पास भेज दिया | और मात्र दों दिन के भीतर वो विदाई कि कठिन घडी आ गयी | सविता को साँस लेने में दिक्कत होने लगी | उस समय अधिकतर स्थानों पर ऑक्सीजन कि कमी थी | काफ़ी कोशिश के बाद ऑक्सीजन सिलिंडर तो मिल गया लेकिन सविता की सांसे सदा के लिए रुक गई | इसे की अस्पताल लापरवाही कहे या सरकार की कमी समझ नहीं आता , मगर इतना ज़रूर है कि इस महामारी के चलते न जाने कितने सानिध्य अनाथ हो गये और माँ – बाप के सानिध्य को तरस गए ………..|
सानिध्य की यादें समय के साथ धूमिल हो गयी या कहे परिवार से मिले प्यार न उस खालीपन को भर दिया लेकिन आज भी उसकी माँ कि जगह कोई नहीं ले पाया | वह समय से पहले समझदार हो गया अपने सभी काम धीरे-धीरे खुद करने लगा परन्तु कुछ ऐसे भी सानिध्य है- जिन्होंने इस वात्याचक्र में माँ -बाप दोनों को खो दिया और आज बेबसी और लाचारी में जी रहे हैं |… और उन्हें सँभालने वाला कोई नहीं हैं ……….|
पूरे दिन घर पर आराम कने और एक दिन सब कुछ रुक- सा गया |

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