इंसानियत
इंसानियत
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल।
तुझे इंसा कहूँ या नकाबपोश।
जिसे देखता हूँ वो तू नही
मानवपन की केवल कलई है।
मानवता उसमें कहीं नहीं,
अंदर तो तेरे पशुता है
पशुता की ही तेरी परिधि,
और पैशाचिक प्रवृत्ति,
पर पशु नहीं तू ,
पशु तो तुमसे बेहतर होते,
प्रकृति संगत गुण-धर्म कभी न खोते,
घातक तेरी प्रवृत्ति,ओढ़े पशुता की खोल।
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल।
क्यूँ इस कदर अवमर्दित हुआ तू ?
क्यूँ हैवान बन गर्वित हुआ तू ?
इंसानियत पर क्या तरस न आती?
तेरी आँखें क्यूँ बरस न पाती ?
अंतर्तम को साक्ष्य रख ,चित्त शांत कर।
पलभर को हो, पैशाचिक प्रवृत्ति से बाहर।
तू अपने हाथो इंसानियत को तोल ।
मेरे सामने खड़े इंसा तू ही बोल ।
–नवल किशोर सिंह