इंसानियत की बंद दुकान हो गई
*** इंसानियत की बंद दुकान हो गई ***
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कितनी अहसान फ़रामोश जुबान हो गई
लगता है इंसानियत की बंद दुकान हो गई
जुबां की हिफ़ाज़त में सर कटा देते कभी
कथनी पर टिके रहना तो दास्तान हो गई
कहे बोल चले आते थे नतमस्तक हो कर
देखते ही चेहरों पर गायब मुस्कान हो गई
बड़ों के आगे झुकी सी रहती थी निगाहें
वो सम्मान करने की कला कुरबान हो गई
आँख के ईशारे से समझ जाते थे बात
आँखें दिखाना लगता है सुर तान हो गई
नातों के मनावन में रुक जाते रश्म रिवाज
भाईचारा भाड़ में बात परवान हो गई
ज़ुर्रत नहीं थी किसी की दर पर दे दस्तक
बिन बताए आ जाने की पहचान हो गई
सुखविंद्र हालात देखकर है गमगीन हुआ
बसते अयनों की शक्ल बंद मकान हो गई
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)