इंद्रवती
रूप नहीं इस जग में,
ऐसा रूप सवारूंगा।
“इंद्र”के इंद्रमहल से,
मोती लेकर आऊंगा।।
काली घटा सी केश रहे,
उमड़ -घुमड़ करते जलद।
बिखरी केश अम्बर तन में,
भीनी-भीनी मम्हाती सहज।
बिंदिया लगे तारा शुक्र की,
भौंह,ललाट कतारों में बने।
काजल लगे भादो मास की,
गिरती तड़ित नथनी सजे।
होंठ रंगे पलास प्रसून,
रातरानी उड़ती केशों से।
वक्ष चढ़ते लतायें पुंज,
उद्वेलित जैसे अनुपम उन्मेशों में।
चंदन से देह भीगे,
खनकती चूड़ियां जैसे तड़ित।
देख मन प्रफुल्लित होता,
हृदय प्रेम में उत्कंठित।
ठहरो”इंद्र”नवलोकी यह,
मदिरा नयन कर दे न घायल।
हुस्न की रूहानी चासनी,
न हो जाओ ता-उम्र कायल।
सुरेश अजगल्ले “इंद्र”
छत्तीसगढ़