इंतज़ार
कैसी चली है अबके हवा तेरे शहर में ,
खौफ के कफ़स में कैद है ज़िंदगी तेरे शहर में ,
शजर उदास है , चिड़ियों के चहचहे भी ग़ुमसुम ,
हर शख़्स बेब़स बेजार सा लगता है हरदम ,
तड़पते दिल लिए मिलने को बेक़रार हैं हमदम ,
अज़ीज़ों से फासले रखने को मजबूर हैं हमक़दम,
ज़िंदगी इस-क़दर क़शीदगी भरी हो जाएगी;
सोचा ना था ,
दर्दो ग़म के साथ एहसास -ए-बेब़सी में जीना होगा;
सोचा ना था ,
न जाने कब उफ़क से उरूज़ होगा सुकुँ- ए – मेहर,
लौटेगी कब ग़मे ज़िंदगी में मस़र्रत की इक सहर,